सिरमौर की फीकी पड़ी परंपरा को जीवंत करने में लगे हैं रामबाबू
कभी दूल्हे के सिर पर सिरमौर ना हो तो यह अशुभ माना जाता था। बदलते वक्त के साथ लोगों की सोच में परिवर्तन आया सिरमौर भी लुप्त होता गया। हालांकि इस रंग बदलती दुनिया में अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें अपनी परंपरा से बेहद लगाव है। उसे जीवंत करने के साथ ही अपने आय का साधन भी बना रखा है।
धर्मेंद्र मिश्रा, रानीगंज : कभी दूल्हे के सिर पर सिरमौर ना हो तो यह अशुभ माना जाता था। बदलते वक्त के साथ लोगों की सोच में परिवर्तन आया, सिरमौर भी लुप्त होता गया। हालांकि इस रंग बदलती दुनिया में अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्हें अपनी परंपरा से बेहद लगाव है। उसे जीवंत करने के साथ ही अपने आय का साधन भी बना रखा है।
एक दौर था कि हाथ से बने देशी सिरमौर की मांग अधिक थी। शहालग के पहले ही लोग सिरमौर की बुकिग कर देते थे। आज हाईटेक जमाने में सिरमौर की जगह पगड़ी ने जगह बना ली है। परंपरा की खोती चमक के पीछे वजहें कई हैं, मगर शादी में अभी भी सिरमौर को ही शुभ माना गया है। रानीगंज तहसील क्षेत्र के पूरेगोलिया गांव निवासी 52 वर्षीय रामबाबू पटवा पुत्र घनश्याम पटवा पुरानी परंपरा को जीवंत रखे हुए हैं। वह सिरमौर बनाकर बाजार में बेचकर खर्च चला रहे हैं। रामबाबू की माने तो वह वाराणसी से चमकीले काग•ा और दफ्ती खरीदते हैं। गांव से बांस खरीदकर उसकी सहायता से सिरमौर बनाते हैं। अमेठी, अंतू, पट्टी, बादशाहपुर, जामताली, रामापुर, फतनपुर, सुवंसा, कनेवरा, बीरापुर, पृथ्वीगंज, बाबूगंज, फूलपुर एवं बहरिया सहित कई प्रमुख बाजारों की दुकानों पर बेचते हैं। एक सिरमौर सौ रुपये में बिक जाता है। इसकी लागत 60 रुपये पड़ती है। यह काम 30 वर्ष से कर रहे हैं। पहले रामबाबू के पिता घनश्याम भी यही काम करते थे। एक आदमी एक दिन में दो सिरमौर बना पाता है। क्षेत्र के प्रतिष्ठित पंडित सुदामा महराज, जनार्दन, बृज श्याम तिवारी, चिता मणि, जितेन्द्र मिश्रा सहित कई धर्म विशेषज्ञों का कहना है कि शादी में सिरमौर ही शुभ है। सिरमौर के ऊपर लगी पंखड़ी को लड़की पक्ष के लोग रख लेते हैं। सिरमौर व जोरा-जामा का महत्व है। इस परंपरा को जीवंत रखना चाहिए। हिदुओं के वैवाहिक कार्यक्रमों में सिरमौर, जोरा-जामा और पियरी का बड़ा ही महत्व है।