जिले में बुजुर्गो को राह भटका रहा डिमेंशिया संक्रमण
बढ़ती उम्र के साथ याददाश्त का कमजोर होना सामान्य बात नहीं है।
प्रतापगढ़ : बढ़ती उम्र के साथ याददाश्त का कमजोर होना सामान्य बात नहीं है। बहुत से लोगों में समस्या अल्जाइमर व फिर डिमेंशिया का रूप ले लेती है। इसे सरल भाषा में मनोभ्रंश कहा जा सकता है। प्रतापगढ़ में भी बुजुर्गों को यह मानसिक संक्रमण तेजी से जकड़ रहा है। वह अपनों तक को पहचाने में खुद को असहज पा रहे हैं। हर साल विश्व अल्जाइमर दिवस 21 सितंबर पर सरकारी तौर पर उनकी चिता का दिखावा भी कर लिया जाता है।
डिमेंशिया यानि भूलने की बीमारी 45 साल से लेकर 70 साल के बीच होने की अधिक संभावना रहती है। उम्र के साथ ही कुछ लोगों में आनुवांशिक भी होती है। इसके अलावा धूम्रपान करने, डायबिटीज होने व लगातार दवाओं सेवन के कारण भी यह संक्रमण किसी को पकड़ सकता है। डिमेंशिया से ग्रस्त व्यक्ति तरह ठीक से अपनी दिनचर्या तक याद नहीं रख पाता। उसे नहाना है, भोजन करना है, बाजार जाना है, दवा खाना है, किसके यहां निमंत्रण है, जैसी जरूरी बातें भी याद नहीं रहतीं। कई बार वह काम करने के बाद भी यह नहीं याद रख पाता कि काम कर चुका है। यानि डिमेंशिया का मतलब दिमाग की क्षमता का निरंतर कम होते जाना। यही नहीं बोलते समय जरूरी शब्द नहीं सूझना भी डिमेंशिया के दायरे में आता है।
प्रतापगढ़ की बात करें तो यहां के बुजुर्गों में भी इस तरह की बीमारी देखी जा रही है। जिला अस्पताल के फिजीशियन की ओपीडी में आने वाले बुजुर्गों में से कम से कम 12 फीसद में इस तरह का संक्रमण मिलता है। आज के एक दशक पहले यह औसत आठ का था। डा. मनोज खत्री बताते हैं कि दिमाग की नसें सिकुड़ जाती हैं। ऐसे मरीजों को मनोरोग विभाग भेजा जाता है।
इलाज की सुविधा नहीं : चिताजनक बात यह है कि डिमेंशिया के मरीजों के लिए खोली गई जिरियाट्रिक यूनिट भी किसी काम की नहीं है। जिला अस्पताल में इमारत बनी है, पर इसका उपयोग नहीं शुरू हो पाया। मनोचिकित्सक डा. एमपी शर्मा को कभी इमरजेंसी में लगा दिया जाता है तो कभी पोस्टमार्टम में। ऐसे में ओपीडी अक्सर बंद रहती है। मरीज प्रयागराज व लखनऊ के चक्कर काटते हैं। हालांकि महानगरों में भी इस बीमारी का कोई सुनिश्चित इलाज नहीं है।