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पोल खोल : कुर्सी का विवाद, दोस्त दोस्त ना रहा Moradabad News

मुरादाबाद शहर के सबसे बड़े अशासकीय महाविद्यालय में छिड़ा कुर्सी का विवाद शहर में तरह-तरह की चर्चाओं को जन्म दे रहा है।

By Narendra KumarEdited By: Published: Sat, 04 Jan 2020 09:07 AM (IST)Updated: Sat, 04 Jan 2020 09:07 AM (IST)
पोल खोल : कुर्सी का विवाद, दोस्त दोस्त ना रहा  Moradabad News
पोल खोल : कुर्सी का विवाद, दोस्त दोस्त ना रहा Moradabad News

मुरादाबाद (अनुज मिश्र)।  आजकल मुरादाबाद शहर के सबसे बड़े अशासकीय महाविद्यालय में 'मुख्य कुर्सीÓ का विवाद छिड़ा है। दावेदारी वाणिज्य विभाग और राजनीति विभाग वाले 'दोस्तोंÓ के बीच है। दोनों में गलबहियां वाली दोस्ती थी। कॉलेज हो या शहर की गलियां, वे एक साथ देखे जाते थे। अचानक कुर्सी की चाहत ने इस दोस्ती में ऐसी दरार डाली कि अब दोनों एक-दूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते। चर्चा है कि दोस्ती में दरार पड़ी वाणिज्य वाले साथी के चलते। वह जानते थे कि उनके साथी ही कागज में सीनियर हैं। फिर भी एक कॉलेज में आए कोर्ट के फैसले ने उनका मनोबल ऐसा बढ़ा दिया कि कुर्सी दोस्ती से बड़ी दिखने लगी। उन्होंने कुर्सी की दावेदारी कर दी तो मामला संबद्ध विश्वविद्यालय के मुखिया तक पहुंचा। वरिष्ठ वाले साथी को चार्ज मिल गया, फिर भी वाणिज्य वाले साथी अब भी कुर्सी की आस लगाए बैठे हैं। खुसुर-फुसुर जारी है। 

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पेड़ पर चढ़ाकर काट दी डाली

आपने कालिदास से जुड़ी घटना किताबों में तो खूब पढ़ी होगी। नये युग में भी 'कालिदासÓ हैं लेकिन, वे खुद डाली नहीं काटते बल्कि कोई उन्हें पेड़ पर चढ़ाकर डाली काट डालता है। मामला लोक का रास्ता बनाने वाले विभाग के इंजीनियरों से जुड़़ा है। जूनियर इंजीनियरों ने साथी का रास्ता रोकने की हैरान करने वाली नजीर पेश की है। साथी को पेड़ पर चढ़ाया लेकिन, उसके अट्टहास करने से पहले ही डाली काट दी। विभाग में आजकल इसकी खूब चर्चा है। मामला हाल में ही संगठन के चुनाव से जुड़ा है। नए को ताज पहनाने की कवायद शुरू हुई। पुराने वालों को निश्चिंत देख नए के मन में सवाल कौंधने लगे कि आखिर वहां इतनी निश्चिंतता क्यों? फिर भी वे जीत के प्रति आश्वस्त दिखे। बक्सा खुला तो हो गए फुस्स? चुप बैठने के अलावा कोई विकल्प नहीं। पेड़ पर चढ़ाने वाले  साथी ही अब कह रहे कि चढऩे से पहले खुद सोचा क्यों नहीं।

साहब की बिसात में फंसे मातहत

शतरंज की बिसात में यदि एक बार आप फंसे तो निकल पाना आसान नहीं होता है। जीत हो या हार, अंत तक जूझना ही पड़ता है। कुछ ऐसा ही है घरों को रोशन करने वाले विभाग के शहरी क्षेत्र के बड़े साहब के साथ। साहब शतरंज के बढिय़ा खिलाड़ी बताए जाते हैं। ऐसी बिसात बिछाते हैं कि मजाल कि कोई उससे आगे निकल पाए। मातहत का उलझना तय है। जब तक मातहत कुछ समझ पाते हैं तब तक बड़े साहब के हर दरबार में मौजूद गुप्तचर काम खराब कर देते हैं। स्थिति तो यह हो गई है कि मातहत दाएं-बाएं देख और दीवारों को भी टटोल कर ही कुछ बोलते हैं। फिर भी साहब के पास तक बात पहुंच ही जाती है। तमाम जतन के बाद भी मातहत ऐसे गुप्तचरों को नहीं ढूंढ पा रहे। अब एक साथी गुप्तचरों की गुप्तचरी का परिणाम भी भोग चुका है, लिहाजा सब मौन हैं।

नियम : आधा तेरा-आधा मेरा    

शहर के अशासकीय महाविद्यालयों में नंबर दो की सूची में गिने जाने वाले कॉलेज की महिमा अपरंपार है। वैसे तो कॉलेज में तमाम विषयों की पढ़ाई होती ही है लेकिन, यहां ईमानदारी की अलग से कक्षा संचालित होती है। ईमानदारी की बात बोलते-बोलते जिम्मेदार के मुंह से ऐसे शब्द झरते हैं कि मानो हरिश्चंद्र के अवतार हों, लेकिन उनके काम ऐसे कि पूछो न। कॉलेज में जिम्मेदारों की सेवा में लगे अंतिम पायदान वाले कर्मियों से आधा तेरा, आधा मेरा का सीधा-सीधा हिसाब है। मजाल है कि कोई कहीं शिकायत कर दें। शिकायत की तो नपना तय। एक ने हिम्मत जुटाई तो पड़ गया मुसीबत में। जैसे-तैसे तो निपटारा हुआ। सबको चेतावनी देते हुए बता दिया गया कि यहां काम करना है तो पुरानी परंपरा का निर्वाह करना ही होगा। आधा-तेरा, आधा मेरा की परंपरा कोई नई थोड़े न है, यह तो शुरू से चल रही है और चलती रहेगी। 


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