चुनाव का विश्लेषण तो चौराहों की चकल्लस में है
भाजपा में तो चेहरा सिर्फ मोदी-योगी हैं प्रत्याशी कौन देखता है।
मेरठ,जेएनएन। 'भाजपा में तो चेहरा सिर्फ मोदी-योगी हैं प्रत्याशी कौन देखता है'।.. 'सपा में अखिलेश की सोच तो ठीक है लेकिन पिछली सरकार में उनके करीबियों ने उन्हें परेशान रखा। अगर इस बार सरकार बन गई तो उससे भी ज्यादा परेशान उनके सहयोगी करेंगे'। ये सब बातें हैं आम लोगों के विश्लेषण की। इस तरह का विश्लेषण अब दिन-रात कहीं भी शुरू हो जाता है जहां तीन-चार लोग मिल जाते हैं। यह चुनावी चकल्लस हर चौराहे, बाजार में, चाय की दुकान या कहीं भी दिखाई पड़ जाती है। इन चर्चाओं में पार्टियों के कामकाज पर पैनी नजर है तो प्रत्याशियों की कमजोरी पर भी। हर पार्टी की पूरी खबर और आंकड़े यहां किसी परिचर्चा की तरह रखे जाते हैं।
ऐसी ही एक चर्चा कुटी चौराहे पर करते हुए लोग दिखाई दिए। वैसे तो चुनावी चर्चा करते हुए आठ-दस लोग एक साथ बैठे मिले, लेकिन जब कैमरा उनकी ओर क्लिक होने को हुआ तो कुछ उसमें से खिसक लिए, कहा कि चुनाव तक वह कैमरे से दूर रहना चाहते हैं पता नहीं किस पार्टी को क्या बुरा लगा। वे तो सभी से मिलने-जुलते हैं। बहरहाल, राकेश कुट्टी, रामबोल, मेवा राम व नानक चंद अपनी चुनावी चर्चा में खोए रहे। इनकी बातों से कोई यह नहीं समझ सकता था कि कौन किस दल का समर्थक है। उनकी बातों में विश्लेषण था। रामबोल कहते गए कि आजकल पार्टी का चेहरा ही मायने रखता है। अब प्रत्याशी को न जनता से सरोकार है न ही जनता को प्रत्याशी से। अलाव पर लकड़ी रखकर मेवाराम उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए बोले, सांसद का चुनाव हो या विधायक का भाजपा के समर्थक तो मोदी-योगी के नाम पर ही समर्थन में खड़े होते हैं। चाय वाले को इशारा करने के बाद राकेश कुट्टी ने इस बात को आगे बढ़ाया। बोले, सपा को ही देख लीजिए। अखिलेश पढ़े-लिखे हैं, सोच भी सही है, लेकिन पिछली बार उनके करीबियों ने ऐसे गलत काम कराए कि पार्टी के खिलाफ जनता हो गई। अगर इस बार जीते तो अब ये नए सहयोगी परेशान रखेंगे। बीच में ही मेवाराम बोले, भाई जीते कोई भी लेकिन बहन-बेटियों की सुरक्षा, अपराध और सड़क पर काम करे। यही सब मुख्य मुद्दे लोग अपने दिलों में रखे हुए हैं। फुटपाथ पर पैर रगड़ते हुए नानक चंद ने गंभीरता से कहा, मुद्दा तो सड़क, सुरक्षा रहेगा। पार्टी का खुद का जनाधार और उसके मुखिया का चेहरा भी मायने रखेगा। प्रत्याशी से ज्यादा अब मतदाता पार्टी की नीति और नीयत देखने लगे हैं। रामबोल फिर बोले, अब कोई किसी का परंपरागत मतदाता नहीं रह गया है। बसपा ने दलित को अपना वोट माना लेकिन संगठन के लोग इन लोगों की आवाज बनने के लिए पहुंचते नहीं। कांग्रेस ने अपनी बनी बनाई साख खोई, कोई ठीक तरह से दिखाई नहीं देता। इसीलिए तो चुनाव दो-तीन प्रत्याशियों के मुकाबले में ही सिमट कर रह जाता है।