‘असाधारण’ शिष्य, अद्वितीय गुरु, फौज से सेवानिवृत्त होकर मानसिक अशक्त बच्चों को कर रहे शक्ति प्रदान Meerut News
सेवानिवृत्त कर्नल आरसी शर्मा और उनकी पत्नी सविता शर्मा मानसिक तौर पर अशक्त बच्चों को आत्मनिर्भर बना रही हैं।
By Taruna TayalEdited By: Published: Thu, 05 Sep 2019 10:49 AM (IST)Updated: Thu, 05 Sep 2019 10:49 AM (IST)
भारतीय संस्कृति में गुरु का दर्जा ईश्वर से भी बढ़कर माना गया है। कच्ची मिट्टी समान शिष्यों को गढ़कर ज्ञान का अक्षयपात्र बनाने में गुरु की भूमिका सिर्फ भारत में ही दिखती है। चाणक्य से लेकर राधाकृष्णन तक इसके अनेक उदाहरण हैं। पश्चिमी शिक्षा पद्धति से इतर भारतीय शिक्षक से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को नई दिशा देने वाला विद्यार्थी तैयार करेगा। बदलते परिवेश में पढ़ने-पढ़ाने के तौर तरीके भले ही बदले हैं, लेकिन शिक्षक का दर्जा बरकरार है। समाज में ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने निस्वार्थ भाव से सीमित संसाधनों में अज्ञानता के अंधकार में ज्ञान का दीप प्रज्ज्वलित किया। शिक्षक दिवस पर ऐसे ही गुरुओं को कोटिश: नमन।
मेरठ, [अमित तिवारी]। ज्ञान के दीपक से अज्ञानता के अंधियारे को दूर करने का काम गुरुजन ही करते हैं। इसकी प्रेरणा जीवन में किसी भी घटनाक्रम से मिल सकती है। एक ऐसी ही शुरुआत सेवानिवृत्त कर्नल आरसी शर्मा और उनकी पत्नी सविता शर्मा के जीवन में हुई, जो अब उनके जीवन की दिशा बन चुकी है। अपने बच्चों की मानसिक दिव्यांगता ने इस दंपती को उनकी तकलीफ का अहसास कराया तो उन्होंने ‘दिशा स्कूल ऑफ स्पेशल एजुकेशन’ की नींव रखी। यहां मानसिक तौर पर अशक्त बच्चों को उनकी क्षमता के अनुरूप उचित प्रशिक्षण व शिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाता है।
हर बच्चे का होता है अलग सिलेबस
मानसिक बीमारियों में मेंटल रिटार्डेशन, डिसलेक्सिया, ऑटिज्म, स्पास्टिक, डाउन सिंड्रोम व सेरेब्रल पालसी प्रमुख हैं। ये बीमारियां जन्म के समय दिमाग में ऑक्सीजन कम मिलने या बाद में दुर्घटना के कारण उभरती हैं। गंगानगर के एच-पॉकेट स्थित दिशा स्कूल में ऐसे बच्चों की क्षमता और जरूरत को परखने के बाद उनके लिए सिलेबस तैयार कर प्रशिक्षित किया जाता है। शैक्षणिक के साथ ही मानसिक व शारीरिक प्रशिक्षण में बच्चों को ढाला जाता है। सुबह की प्रार्थना में योगाभ्यास के बाद म्यूजिक थेरेपी, स्पीच थेरेपी, बिहेवियर थेरेपी, फिजियो थेरेपी और ऑक्यूपेशनल थेरेपी यानी फोटो स्केच, मसाला बनाना, क्राफ्ट वर्क आदि होता है।
संभव है सुधार
संस्थान के निदेशक कर्नल आरसी शर्मा के अनुसार मंदबुद्धि या मानसिक दिव्यांग बच्चों का मस्तिष्क या तो पूरी तरह से विकसित नहीं होता या जन्म के समय या फौरन बाद मस्तिष्क की कोशिकाओं को क्षति हो जाती है। यह बच्चे सीखने की क्षमता में कमी, कमजोर याददाश्त, सोचने, समझने व अभिव्यक्ति में कमी, स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम, ध्यान स्थिर करने या निर्णय लेने में अक्षम होते हैं। इन बच्चों में ईश्वर की दी हुई क्षमताएं भी होती हैं, जिन्हें स्पेशल एजुकेशन के जरिए विकसित करके बच्चों में सुधार संभव है।
इस दिशा में यूं बढ़ा कारवां
शहर के प्रतिष्ठित लोगों में एक डा. अनिल बंसल व सेवानिवृत्त कर्नल आरसी शर्मा के साथ अधिवक्ता, आर्किटेक्ट, ब्रिगेडियर समेत 10 लोगों ने मार्च 1994 में मेरठ चिल्ड्रन वेलफेयर ट्रस्ट बनाया। 35 साल स्पेशल एजुकेशन का अनुभव रखने वाली कर्नल शर्मा की पत्नी सविता शर्मा ने प्रिंसिपल के तौर पर दो-तीन स्पेशल बच्चों को शिक्षा देनी शुरू की। अक्टूबर 1994 में स्कूल की शुरुआत बीआइ लाइंस से हुई। इसके बाद यह संस्थान मानसरोवर और 2007 से गंगानगर में संचालित है। अब तक करीब डेढ़ सौ बच्चे यहां से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं और वर्तमान में अलग-अलग उम्र के 130 बच्चे प्रशिक्षणरत हैं।
अब तैयार होते हैं प्रशिक्षक भी
ट्रस्ट के अंतर्गत ‘मेरठ इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेशल एजुकेशन’ संचालित है। इसमें भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त दो वर्षीय डिप्लोमा इन स्पेशल एजुकेशन ‘इंटलेक्चुअल डिसेबिलिटी’ और सीसीएसयू से संबद्ध दो वर्षीय बीएड इन स्पेशल एजुकेशन का कोर्स संचालित होता है।
मेरठ, [अमित तिवारी]। ज्ञान के दीपक से अज्ञानता के अंधियारे को दूर करने का काम गुरुजन ही करते हैं। इसकी प्रेरणा जीवन में किसी भी घटनाक्रम से मिल सकती है। एक ऐसी ही शुरुआत सेवानिवृत्त कर्नल आरसी शर्मा और उनकी पत्नी सविता शर्मा के जीवन में हुई, जो अब उनके जीवन की दिशा बन चुकी है। अपने बच्चों की मानसिक दिव्यांगता ने इस दंपती को उनकी तकलीफ का अहसास कराया तो उन्होंने ‘दिशा स्कूल ऑफ स्पेशल एजुकेशन’ की नींव रखी। यहां मानसिक तौर पर अशक्त बच्चों को उनकी क्षमता के अनुरूप उचित प्रशिक्षण व शिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाता है।
हर बच्चे का होता है अलग सिलेबस
मानसिक बीमारियों में मेंटल रिटार्डेशन, डिसलेक्सिया, ऑटिज्म, स्पास्टिक, डाउन सिंड्रोम व सेरेब्रल पालसी प्रमुख हैं। ये बीमारियां जन्म के समय दिमाग में ऑक्सीजन कम मिलने या बाद में दुर्घटना के कारण उभरती हैं। गंगानगर के एच-पॉकेट स्थित दिशा स्कूल में ऐसे बच्चों की क्षमता और जरूरत को परखने के बाद उनके लिए सिलेबस तैयार कर प्रशिक्षित किया जाता है। शैक्षणिक के साथ ही मानसिक व शारीरिक प्रशिक्षण में बच्चों को ढाला जाता है। सुबह की प्रार्थना में योगाभ्यास के बाद म्यूजिक थेरेपी, स्पीच थेरेपी, बिहेवियर थेरेपी, फिजियो थेरेपी और ऑक्यूपेशनल थेरेपी यानी फोटो स्केच, मसाला बनाना, क्राफ्ट वर्क आदि होता है।
संभव है सुधार
संस्थान के निदेशक कर्नल आरसी शर्मा के अनुसार मंदबुद्धि या मानसिक दिव्यांग बच्चों का मस्तिष्क या तो पूरी तरह से विकसित नहीं होता या जन्म के समय या फौरन बाद मस्तिष्क की कोशिकाओं को क्षति हो जाती है। यह बच्चे सीखने की क्षमता में कमी, कमजोर याददाश्त, सोचने, समझने व अभिव्यक्ति में कमी, स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम, ध्यान स्थिर करने या निर्णय लेने में अक्षम होते हैं। इन बच्चों में ईश्वर की दी हुई क्षमताएं भी होती हैं, जिन्हें स्पेशल एजुकेशन के जरिए विकसित करके बच्चों में सुधार संभव है।
इस दिशा में यूं बढ़ा कारवां
शहर के प्रतिष्ठित लोगों में एक डा. अनिल बंसल व सेवानिवृत्त कर्नल आरसी शर्मा के साथ अधिवक्ता, आर्किटेक्ट, ब्रिगेडियर समेत 10 लोगों ने मार्च 1994 में मेरठ चिल्ड्रन वेलफेयर ट्रस्ट बनाया। 35 साल स्पेशल एजुकेशन का अनुभव रखने वाली कर्नल शर्मा की पत्नी सविता शर्मा ने प्रिंसिपल के तौर पर दो-तीन स्पेशल बच्चों को शिक्षा देनी शुरू की। अक्टूबर 1994 में स्कूल की शुरुआत बीआइ लाइंस से हुई। इसके बाद यह संस्थान मानसरोवर और 2007 से गंगानगर में संचालित है। अब तक करीब डेढ़ सौ बच्चे यहां से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं और वर्तमान में अलग-अलग उम्र के 130 बच्चे प्रशिक्षणरत हैं।
अब तैयार होते हैं प्रशिक्षक भी
ट्रस्ट के अंतर्गत ‘मेरठ इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेशल एजुकेशन’ संचालित है। इसमें भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त दो वर्षीय डिप्लोमा इन स्पेशल एजुकेशन ‘इंटलेक्चुअल डिसेबिलिटी’ और सीसीएसयू से संबद्ध दो वर्षीय बीएड इन स्पेशल एजुकेशन का कोर्स संचालित होता है।
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