राजपूत रेजिमेंट के आगे युद्ध से पहले ही हिम्मत हार चुका था दुश्मन
मेरठ। भारतीय सेना के राजपूत रेजिमेंट की 21वीं बटालियन ने गुरुवार को 47वां युद्ध सम्मान दिवस 'खा
मेरठ। भारतीय सेना के राजपूत रेजिमेंट की 21वीं बटालियन ने गुरुवार को 47वां युद्ध सम्मान दिवस 'खानसामा' मनाया। इस युद्ध में 21वीं राजपूत रेजिमेंट के 20 जवान शहीद हुए थे। बटालियन को इस युद्ध में पराक्रम के लिए चार वीर चक्र और तीन सेना मेडल के साथ बैटल ऑनर खानसामा और थिएटर ऑनर पूर्वी पाकिस्तान से नवाजा गया। बटालियन के वर्तमान व पूर्व राजपूत सैनिकों ने गुरुवार को शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। कमान अधिकारी कर्नल संग्राम वर्तक की अगुवाई में सुबह श्रद्धांजलि सभा के बाद विशेष सैनिक सम्मेलन और शाम को बड़ा खाना पर सभी वर्तमान व पूर्व सैनिक सपरिवार एकत्रित हुए।
साथ आए चारों कंपनी कमांडर
सेना की एक बटालियन में चार कंपनियां होती हैं। हर कंपनी का एक अलग कमांडर होता है। बटालियन की चारों कंपनी के कमांडरों ने चार तरफ से हमला बोलकर दुश्मन को घुटने टेकने और पीछे भागने पर विवश कर दिया था। गुरुवार को सैनिक सम्मेलन में चारों कंपनी कमांडर्स व अन्य अफसरों ने युद्ध के दौरान के अपने अनुभवों को साझा किया। बताया कि युद्ध से पहले बटालियन नागालैंड में काउंटर इंसरजेंसी ऑपरेशन के लिए तैनात थी और वहां से युद्ध में भेजा गया। बटालियन 26 नवंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की सीमा में घुसी और 16 दिसंबर को सैदपुर में दुश्मन के तीन हजार सैनिकों का आत्मसमर्पण स्वीकार किया।
लड़ने की हिम्मत हार गया था दुश्मन
मेजर एमएस मलिक के अनुसार खानसामा में दुश्मन के बेहद करीब पहुंचने के बाद भी उन्हें हमारे वहां होने का एहसास नहीं था। एक सैनिक को खांसी आने से दुश्मन सतर्क हो गया। मेजर आरडीएस चौहान के अनुसार हमने दुश्मन को 13 दिसंबर को हमले के तीन दिन पहले से सोने नहीं दिया था। समय-समय पर 'जय बजरंग बली' की हुंकार लगाते जिससे दुश्मन इस डर से जागता रहा कि हम आगे तो नहीं बढ़ रहे। यही कारण था कि हमने रात की बजाय दिन के उजाले में हमले की योजना बनाई। हैरानी तब हुई जब दुश्मन के हथियारों का बड़ा जखीरा पकड़ा जिसे खोला भी नहीं गया था और दुश्मन ने समर्पण कर दिया। मेजर एमएस महाना ने बताया कि किस तरह सारे हथियार को कब्जे में लेकर आगे इस्तेमाल किया गया।
पासिंग परेड से पहुंचे रणभूमि में
कर्नल एसबी छिब्बर के अनुसार युद्ध को सामने देखते हुए अफसरों की कमी को पूरा करने के लिए दिसंबर की बजाय नवंबर 1971 में ही पासिंग आउट परेड कर दिया गया। महज 10-10 दिनों की छुट्टी के बाद राजपूत बटालियन में भी अफसर सीधे युद्ध के समय ड्यूटी ज्वाइन करने पहुंचे। ऐसे ही अफसरों में एक ले. कर्नल एसके बेदी राजपूत बटालियन में पहुंचे। उनके सिर के बराबर हेलमेट न मिलने पर वह छोटा हेलमेट ही पहनकर आगे बढ़े। पासागढ़ में दुश्मन से हुई मुठभेड़ के बाद उनके हेलमेट में तीन-चार जोड़ी छेद दिखे जिनमें से गोली एक ओर से दूसरी ओर पार कर गई थी। हेलमेट छोटा होने के कारण हेलमेट ऊपर था जिससे गोली सिर को नहीं छू सकी।
अपनी प्रतिमा देख गदगद हुए विश्वेश्वर
बटालियन की ओर से युद्ध में शहीद हुए सैनिक राजा सिंह व बाने सिंह के साथ दुश्मन की लैंडमाइन से जख्मी हुए विश्वेश्वर सिंह के सम्मान में तीन प्रतिमा बनाई गई है। अपनी प्रतिमा का अनावरण स्वयं विश्वेष्वर सिंह ने किया। मैनपुरी निवासी बिश्वेश्वर सिंह गर्व के साथ उस मंजर को बयां करते हुए दोनों शहीद साथियों की वीरता को बयां किया। ले. जर्नल एसएन चक्रवर्ती ने बताया कि जख्मी होकर जमीन पर पड़े लांस नायक बिश्वेश्वर सिंह से जब उन्होंने हाल पूछा तो बिश्वेश्वर सिंह ने स्वयं को ठीक बताते हुए उन्हें आगे बढ़ने का आग्रह किया। जवानों की इसी भावना से हम युद्ध में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने में सफल रहे।