कानपुर ही नहीं बल्कि हर शहर में हैं ऐसे गांव, जहां खाकी और खादी से चलता है गुंड़ाराज
कानपुर की हुई घटना के बाद हर जगह पर अलर्ट जारी है। वहीं कानपुर का वह बिकरू गांव हर शहर में हैं जहां ऐसी घटनाएं हो सकती हैं। पढि़ए रवि प्रकाश तिवारी का यह स्पेशल कालम।
रवि प्रकाश तिवारी, मेरठ। विकास की वजह से आज बदनाम बिकरू सूबे का अकेला गांव-मोहल्ला नहीं है। खाकी की सरपरस्ती में ऐसे इलाके, जहां खाकी का ही इकबाल शून्य हो जाए, हर शहर में मिल जाएंगे। आठ पुलिसकर्मियों की मौत ने बहस छेड़ तो दी है, लेकिन यह सिर्फ कानपुर के बिकरू तक नहीं सिमटनी चाहिए। अपने शहर को उठाकर देख लीजिए, दर्जनभर से कम जगह नहीं मिलेगी जहां खाकी को भी घुसने से डर लगता है। क्या कर्म नहीं होते इन इलाकों में, लेकिन कुछ तो जेब गर्म होने का लालच और कुछ उन इलाकों के ‘विकास’ का डर, पैरों में बेड़ियां डाल देता है। अंधेरी रात तो दूर की बात, याद कर लीजिए 20 दिसंबर की तारीख, कुछ इलाकों में जिस तरह से दनादन गोलियां चलीं और सिस्टम से मुट्ठी भर लोग घंटों लड़े, वह क्या बिकरू से कम है? आंख मूंदने से सच छिप जाएगा क्या?
सोतीगंज का तिलिस्म तोड़ पाएंगे क्या
ऑपरेशन क्लीन के तहत सरकार ने खाकी को एक और मौका दिया है। अपने दामन पर लगे दाग धो लें और इकबाल भी कायम कर लें, लेकिन वाहनों का कमेला कहे जाने वाले मेरठ के सोतीगंज को लेकर यहां के अफसरों के पास कोई ठोस प्लान है, दिखता नहीं। हर दूसरी-तीसरी दबिश में यहां पुलिस पिट जाती है। सिर नीचा कर लौट आती है। ज्यादा पुरानी बात नहीं, लेकिन इसी मेरठ में एक युवा अफसर ने सोतीगंज में अवैध कटान के ठेकेदारों के नाक में दम कर दिया था। ऐसे-ऐसे खुफिया तहखानों से पर्दा हटाया, जिसकी भनक किसी को न थी, लेकिन सिस्टम का दीमक उस अफसर के सेवाकाल को ही चाट गया। उसे मेरठ से विदाई दे दी गई। आज खाकी पर बोझ है, आगे-पीछे का हिसाब चुकता कर लेने का मौका भी। सिस्टम से एक सवाल है, क्या मेरठ में क्लीनिंग होगी?
यहां कोरोना नहीं, जिंदगी जीतती है
कोरोना और जिंदगी में बड़ा कौन, पिछले दिनों 102 साल की एक बुजुर्ग ने बताया। संक्रमण पर उन्हें मेडिकल में भर्ती कराया गया। वहां कोरोना में उम्र के पड़ाव को ही सबसे बड़ा फैक्टर माना गया, वहीं दादी ने चीन में पनपे वायरस से डटकर मुकाबला किया और उसे परास्त किया। उन्होंने साबित किया जिंदगी से बड़ा कुछ भी नहीं। हालांकि स्वस्थ होकर घर लौटने के दो दिन बाद बुजुर्ग का इंतकाल हो गया, लेकिन जांच-पड़ताल में पता चला कि मौत की वजह उम्र थी, यानी मौत सामान्य थी। उन्होंने जिंदगी जी ली थी। बुजुर्ग तो चली गईं लेकिन उन्होंने जिंदगी पर बड़ा तोहमत लगने से बचा लिया। यही मौत दो दिन पहले हो जाती तो जिंदगी पर कोरोना के भारी पड़ने के दावों पर मुहर लग जाती, लेकिन बुजुर्ग ने पहले कोरोना से जिंदगी को जिताया और फिर खुद भी इससे हार गईं।
चाल, चरित्र, चेहरा यही है क्या?
पार्टी विद ए डिफरेंस का नारा देने वाली पार्टी के अहम किरदार ही इसकी रीति-नीति के दलदल को एक-एक कर नोचने लगे हैं। लॉकडाउन हो या अनलॉक का समय, इन्होंने मर्यादा-अनुशासन के हर कवच को तोड़ा है। बीच सड़क पर खाकी को औकात दिखाने की बात हो, या फिर उसके समर्थन में खाकी के लिए अपशब्द कहना। इतने पर भी पार्टी के हुक्मरान कुछ कहते तो मामला न बिगड़ता, लेकिन सत्ता के मद में कुछ नेता सियासत में अपने को ऊंचा दिखाने की कोशिश में दूसरों पर टिप्पणी में मर्यादा की सीमा भूलते गए। मामला इतना बढ़ा कि आपसी कटुता ऑडियो- वीडियो में खूब वायरल हुई। एक-एक चिट्ठा खोलने का दावा किया। एक के बाद एक अनुशासन की परतें उधेड़ने के बावजूद संगठन और सियासत में भरपूर रसूख रखने वाले सूरमा ठीक वैसे ही मौन हैं जैसे चीरहरण के समय धृतराष्ट्र भरी सभा में।