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Meerut MIET के शिक्षक व छात्रों ने बांस और मक्के के स्टार्च से तैयार किया डायपर, पर्यावरण को पहुंचाएगा लाभ

बाजार में उपलब्ध ज्यादातर डायपर बायोडिग्रेडेबल नहीं होते। अर्थात मिट्टी में जाने के बाद आसानी से गलते नहीं हैं। ऐसे में मेरठ एमआइईटी में बायोटेक्नोलाजी विभाग के शिक्षक और छात्रों ने बांस और मक्के का इस्तेमाल कर पूरी तरह बायोडिग्रेडेबल डायपर तैयार किया है। बच्‍चों की त्‍वाचा को लाभ होगा।

By Himanshu DwivediEdited By: Published: Wed, 19 May 2021 11:25 AM (IST)Updated: Wed, 19 May 2021 11:26 AM (IST)
Meerut MIET के शिक्षक व छात्रों ने बांस और मक्के के स्टार्च से तैयार किया डायपर, पर्यावरण को पहुंचाएगा लाभ
डायपर से बच्‍चों की त्‍वचा को भी होगा लाभ।

[विवेक राव] मेरठ। दूसरे विश्व युद्ध के बाद डायपर का इस्तेमाल शुरू हुआ, तब कोई नहीं जानता था कि भविष्य में यह एक जटिल समस्या का कारण भी बन सकता है। अभी बाजार में उपलब्ध ज्यादातर डायपर बायोडिग्रेडेबल नहीं होते। अर्थात मिट्टी में जाने के बाद आसानी से गलते नहीं हैं। ऐसे में मेरठ इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी (एमआइईटी) में बायोटेक्नोलाजी विभाग के शिक्षक और छात्रों ने बांस और मक्के का इस्तेमाल कर पूरी तरह बायोडिग्रेडेबल डायपर तैयार किया है। यह मिट्टी में बहुत जल्द गल जाता है।

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दिन-प्रतिदिन डायपर की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर इसके जल्द नष्ट न होने से पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है। एमआइईटी के शिक्षक डा. अनुज सिंह और उनके छात्रों ने इस समस्या से निजात दिलाने की कोशिश की है। उन्होंने पूरी तरह बायोडिग्रेडेबल डायपर बनाया है। इसमें बांस के फाइबर, एसएपी (सुपर एब्जारमेंट पालीमर) और मक्के के स्टार्च का इस्तेमाल किया है। यह स्टार्च भुट्टे के भीतर सफेद रंग के भाग को सुखाने के बाद उसे पीसकर बनता है। एक डायपर को तैयार करने में फिलहाल पांच रुपये का खर्च आया है। डा. अनुज सिंह के साथ बायोटेक्नोलाजी विभाग की छात्र शालिनी राणा, निकिता गुप्ता, सौरभ रस्तोगी, अंकित सिंह ने इसे अब स्टार्टअप से जोड़ दिया है।

अगले साल बाजार में

बायोटेक्नोलाजी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा. अनुज सिंह ने बताया डायपर का पेटेंट हो चुका है। अपग्रेड करके अगले साल तक बाजार में उपलब्ध कराया जाएगा। इसमें इस्तेमाल बायोडिग्रेडेबल है जो मिट्टी में जाने के बाद बहुत जल्द गल जाती है। बाजार में के डायपर को मिट्टी में गलने में 500 साल का समय लगता है।

इस्तेमाल में भी सुरक्षित

ज्यादातर डायपर में सामान्य प्लास्टिक और केमिकल्स का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे डायपर बच्चों की कोमल त्वचा को नुकसान पहुंचाते हैं। त्वचा में नमी, छोटी-छोटी फुंसिया, लाल चकते हो जाते हैं। दूसरी ओर बांस और मक्के के स्टार्च जैसी प्राकृतिक चीजों से बना डायपर इस्तेमाल में भी पूरी तरह सुरक्षित होगा। 


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