मेरठः अंकों की दौड़ के बजाए बच्चों को एप्टीट्यूड के हिसाब से मिले शिक्षा
प्रतिस्पर्धा के युग में किताबों की संख्या अधिक न बढ़ाना बड़ी चुनौती थी, लेकिन उन्होंने हासिल किया।
शिक्षा की बुनियादी व्यवस्था बड़े नाजुक दौर से गुजर रही है। सरकारी विद्यालयों और निजी स्कूलों में शिक्षण व्यवस्था का बढ़ता अंतर परिजनों को निजी व्यवस्था की ओर ले जा रहा है। सरकारी व्यवस्था में जहां एक ओर प्राइमरी, जूनियर और माध्यमिक स्कूलों में पढ़ाई का माहौल बनाए रखने की कवायद चल रही है।
वहीं पब्लिक स्कूलों में शिक्षा व्यवसाय और अंकों की दौड़ बढ़ती जा रही है। इसके बीच भी हमारे आस-पास कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने शिक्षा की महत्ता को व्यवसायीकरण के जाल से बचाए रखने की पुरजोर कोशिश जारी रखी है। अपने अनुभव से शिक्षण व्यवस्था की बुनियाद, परंपरा को साथ रखते हुए आधुनिक जरूरतों को आत्मसात कर आगे बढ़ रहे हैं, बढ़ा रहे हैं।
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हरमोहन (एचएम) राउत ऐसी ही शख्सियत हैं, जो शिक्षा को ही समर्पित हैं। कैंट स्थित दीवान पब्लिक स्कूल के प्रधानाचार्य के तौर पर 21 वर्षों से सेवा प्रदान करते हुए उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान दिया कि बच्चों पर बस्ते का बोझ नहीं बढ़ाएं बल्कि अधिकाधिक ज्ञान से उन्हें सींचे। कुल 45 साल से अधिक समय तक शिक्षा से जुड़े रहने के दौरान उन्होंने शिक्षा की अलग-अलग व्यवस्था को बेहद करीब से देखा, समझा और अपने अनुभव में शामिल किया।
सीनियर कैंब्रिज (अब आइसीएसई) व्यवस्था के तहत 10 सालों तक बहरीन में रहे। यहां आईसीएसई के साथ ही विभिन्न देशों की शिक्षण पद्धति के अंतर्गत संचालित स्कूलों की पद्धतियों को भी समझा। देश लौटने पर सीबीएसई से जुड़े। प्रधानाचार्य के तौर पर कार्यरत रहने के साथ ही लंबे समय तक सीबीएसई के सिटी को-आर्डिनेटर के तौर पर सेवाएं दीं।
नहीं बढ़ाया बस्ते का बोझ
'मिनिमम टेक्स्ट बुक, मैक्सिमम लर्निंग आउटकम टू किड्स' के सिद्धांत पर चलते हुए एचएम राउत ने बच्चों के लिए करिकुलम वर्कलोड अब तक कम रखा है। प्रधानाचार्य पद पर रहने के बावजूद बच्चों और शिक्षकों से लगातार जुड़े रहते हुए उन्होंने टीम बिल्डिंग को प्रमुखता दी। बच्चों की किताबी पढ़ाई के साथ रचनात्मकता पर जोर देना उनका मंत्र है।
युवा पीढ़ी को भारतीय संस्कृति से जोड़ने और मूल्यों की शिक्षा देने के लिए शहर में सबसे पहले स्पिक मैके से जुड़े और भारतीय शास्त्रीय संगीत और कलाकारों से बच्चों को जोड़ रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के युग में किताबों की संख्या अधिक न बढ़ाना बड़ी चुनौती थी, लेकिन उन्होंने हासिल किया। शिक्षक, परिजन, प्रबंधन और छात्र-छात्राओं के समन्वय ने स्कूल को नई उपलब्धियां प्रदान की।
बढ़ रही है शिक्षा की निजी व्यवस्था
एचएम राउत कहते हैं कि देशभर में करीब साढ़े तीन लाख निजी स्कूल हैं जो कुल स्कूलों का 24 फीसद है। इन स्कूलों में तकरीबन साढ़े सात करोड़ बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं, जो कुल छात्र संख्या का 38 फीसद है। यह बड़ा आंकड़ा है, जो लगातार बढ़ रहा है। प्रतिस्पर्धा के साथ शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखना बड़ी चुनौती है। इसमें सुविधाओं को प्रमुखता दी जाती है, इसलिए स्कूलों में शिक्षा भी समय के साथ महंगी हो रही है। सरकारी स्कूलों में सस्ती और अच्छी शिक्षा मिल सकती है, लेकिन सरकारों को इसे प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखने की जरूरत है।
पांच चुनौतियां जिन्हें पार करने की है जरूरत
- शिक्षा व्यवस्था एक सम्मिलित दृष्टिकोण है। इसे कोई एक वर्ग पूरी तरह से निभा नहीं सकता है। इसमें बच्चों के माता-पिता, स्कूलों के शिक्षकगण, प्रधानाचार्य, स्कूल प्रबंधक सम्मिलित और समान सोच के साथ आगे बढ़ते हैं, तभी शिक्षा का विकास होता है। यह हो रहा है, लेकिन इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है।
- बेहतर शिक्षण के लिए अच्छे शिक्षकों का चयन वर्तमान में एक बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का सामना हर स्कूल को करना पड़ता है। गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए बेहतर शिक्षकों का होना जरूरी है। एजुकेशन के क्षेत्र में अब आने वाले युवा केवल डिग्री लेकर आ रहे हैं। उनमें शिक्षण का भाव नहीं मिल रहा है। उनकी ट्रेनिंग का स्तर सुधारने की जरूरत है।
- स्कूलों की फीस अफोर्डेबल और रीजनेबल होनी चाहिए। शिक्षा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। गुणवत्तापरक शिक्षा के साथ मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए फीस बोझ नहीं बननी चाहिए। इससे शिक्षण व्यवस्था पर लोगों का विश्वास बढ़ता है और परिजन, स्कूल और प्रबंध तंत्र में समन्वयक का भाव बना रहता है।
- पढ़ाई के साथ करियर की प्लानिंग होनी चाहिए। महज अंकों की दौड़ में बच्चों को धकेलने की बजाय उनके एप्टीट्यूड के हिसाब से शिक्षा मिलनी चाहिए। बच्चों और परिजनों की काउंसिलिंग निरंतर होनी चाहिए। देश-दुनिया की अर्थ व्यवस्था को देखते हुए करियर की नई-नई योजनाएं बनाई जानी चाहिए।
- लोगों की सोच सकारात्मक होनी चाहिए। हर वर्ग जब सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ेगा तभी शिक्षा में बदलाव दिखेगा। बच्चों के प्रति परिजन और शिक्षक सकारात्मक रवैया अपनाएंगे तो बच्चों का बोझ कम होगा और वे बेहतर परिणाम दे सकेंगे।
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