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आजादी की जंग में कुर्बान कर दिया सरनेम, फर्स्‍ट नेम अननोन Meerut News

एक जमींदार परिवार में जन्में मदन मोहन इंग्लैंड में कानून और जर्मनी में प्रिंटिंग की पढ़ाई पूरी कर लौटे तो स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। रास्ता उन्होंने वैचारिक लड़ाई का चुना।

By Taruna TayalEdited By: Published: Fri, 16 Aug 2019 03:36 PM (IST)Updated: Fri, 16 Aug 2019 03:36 PM (IST)
आजादी की जंग में कुर्बान कर दिया सरनेम, फर्स्‍ट नेम अननोन Meerut News
आजादी की जंग में कुर्बान कर दिया सरनेम, फर्स्‍ट नेम अननोन Meerut News
मेरठ, [रवि प्रकाश तिवारी]। जातिविहीन समाज में आस्था का बेहतर नमूना देखना है तो मेरठ में बेगमपुल के निकट शेर वाली कोठी आ जाइए। अंग्रेजों से वैचारिक लड़ाई लड़ने वाले मदन मोहन की पांचवी पीढ़ी आज भी अपना सरनेम यानी फैमिली नेम नहीं लिखती। परिवार का हर सदस्य केवल अपने नाम से पहचाना जाता है। इसकी शुरुआत 1930 में हुई थी, जो अब इस परिवार की परंपरा बन गई है। देश-विदेश आने-जाने में फैमिली नेम यानी फस्र्ट नेम की अनिवार्यता को लेकर दिक्कतें भी पेश आयीं लेकिन परिवार ने परंपरा नहीं टूटने दी। दरअसल, एक जमींदार परिवार में जन्में मदन मोहन इंग्लैंड में कानून और जर्मनी में प्रिंटिंग की पढ़ाई पूरी कर लौटे तो स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। रास्ता उन्होंने वैचारिक लड़ाई का चुना। समाज में जाति-धर्म की दीवार ढहाने के मकसद से सबसे पहले अपना सरनेम छोड़ दिया। संदेश साफ था..हम भारतीय हैं, हिंदुस्तानी हैं। दूसरी कोई और पहचान नहीं।
नस्लभेदी टिप्पणी ने मदन मोहन को झकझोरा था
जमींदार परिवार में जन्मे मदन मोहन कानून की पढ़ाई पढ़ने 1924 में इंग्लैंड चले गए। मेधावी इतने थे कि मीडिल टेंपल से तीन वर्ष का कोर्स नौ माह में पूरा कर लिया। तब की प्रशासनिक सेवा (आइसीएस) की लिखित परीक्षा व इंटरव्यू पास करने के बाद घुड़सवारी का टेस्ट दे रहे थे। तभी कुछ गड़बड़ होने पर अंग्रेज ने उन पर नस्लभेदी टिप्पणी कर दी। मदन मोहन को यह नागवार गुजरा। वहीं आइसीएस को छोड़ वे 1925-26 में जर्मनी के लिब्जिक चले गए और प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी में डिप्लोमा किया। स्वदेश लौटने पर देखा कि जमींदारी खत्म हो चुकी है और पिता परिवार चलाने के लिए मेरठ कचहरी में पेशकार की नौकरी कर रहे हैं। अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाने के मकसद से उन्होंने 1930 में प्रिंटिंग प्रेस शुरू किया। नाम दिया निष्काम प्रेस। यहां अंग्रेजी व्यवस्था को चुनौती देती पुस्तकों, आजादी के लिए जागरूक करने वाले पर्चे, पंपलेट, अखबारों को छापा। इसकी खातिर वे जेल भी गए।
सरनेम पता नहीं...लिख दो फर्स्‍ट नेम अननोन
मदन मोहन की तीसरी पीढ़ी के हेमंत कहते हैं कि परिवार की इस परंपरा को निभाना आसान नहीं था। कई बार चुनौतियां आयीं। स्कूल में दाखिले से लेकर आइएएस, आइपीएस के इंटरव्यू तक। हमसे सवाल पूछा जाता रहा। परिवार के एक सदस्य को न्यूयार्क में नौकरी मिली। वहां बगैर सरनेम या फस्र्ट नेम के वीजा जारी नहीं होता। यहां हम फंस गए थे। आखिर में एफएनयू लिखकर काम चला। एफएनयू...मतलब फर्स्‍ट नेम अननोन।
परिवार से विदेश सचिव डीजीपी तक निकले
मदन मोहन का परिवार और सफलता मानों सिक्के के दो पहलू हैं। मदन मोहन की एक बेटी छह बेटों में कोई विदेश सचिव बना तो कोई डीजीपी। सबसे बड़े बेटे अरुण ने उनका प्रिंटिंग का काम संभाला तो दूसरे नंबर के राकेश बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में माइनिंग एंड मेटर्लिजी के विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुए। तीसरे नंबर के बेटे प्रभात राजस्थान में प्रिंटिंग का काम संभालते थे। उनसे छोटे शशांक अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय विदेश सचिव रहे। पांचवे नंबर के आलोक का प्लास्टिक का व्यवसाय है। वे मुंबई में रहते हैं जबकि सबसे छोटे बेटे विकास हरियाणा के पुलिस महानिदेशक पद से रिटायर हुए। अरुण के बड़े बेटे हेमंत ने भी 1973 बैच में आइएएस का इंटरव्यू तक क्लियर कर लिया था, लेकिन उन्होंने पुश्तैनी काम ही संभाला। हेमंत के पुत्र एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर हैं। 

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