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होली गीतों के साथ अब नहीं बजती कांसे की थाली और मृदंग की थाप

दो दिन बाद उल्लास और मस्ती का त्योहार होली है। पिचकारियों और रंगों की कुछ दुकानों को छोड़ दें तो पर्व का उत्साह कहीं नजर नहीं आ रहा है।

By JagranEdited By: Published: Sun, 28 Mar 2021 07:10 AM (IST)Updated: Sun, 28 Mar 2021 07:10 AM (IST)
होली गीतों के साथ अब नहीं बजती कांसे की थाली और मृदंग की थाप
होली गीतों के साथ अब नहीं बजती कांसे की थाली और मृदंग की थाप

मेरठ,जेएनएन। दो दिन बाद उल्लास और मस्ती का त्योहार होली है। पिचकारियों और रंगों की कुछ दुकानों को छोड़ दें तो पर्व का उत्साह कहीं नजर नहीं आ रहा है। कभी रंगों के पर्व के आगमन का संदेश वातारण में गूंजते होली के गीतों से मिला करता था। शहर तो दूर अब गांवों का भी कमोबेश यही हाल है। होली पर उल्लास के नाम पर वर्तमान में डीजे पर फिल्मी गीत बजते हैं। इनमें से कई तो फूहड़ता लिए होते हैं। मेरठ में होली के गीतों की समृद्ध परंपरा रही है। इस लोक कला से जुड़े अब गिने-चुने लोग ही बचे हैं। उनके समय में होली पर कैसा नजारा होता था, इस पर दैनिक जागरण ने उनसे बातचीत की।

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पुराने शहर में गली-गली में गूंजते थे गीत

पुराना मेरठ शहर बुढ़ाना गेट और आसपास गली मोहल्लों में बसता है। स्थानीय निवासी 60 वर्षीय मुकेश सैनी कहते हैं कि होली के चार दिन बाद तक होली गीत गाए जाते थे। होली के आठ दिन पहले से गली-गली में मंडलियां शाम होते ही जम जाती थीं। पांच-छह लोग वाद्य बजाने वाले होते थे और तीन-चार गाने वाले। सामने सुनने वालों का जमावड़ा होता था। वह स्वयं ढोलक बजाते थे। बताया कि पिछले करीब 17 साल से ये परंपरा बंद है। बताया कि टीवी सीरियलों के चलते इस तरह के आयोजनों पर बड़ा प्रभाव पड़ा है।

दौराला में होती है तिल्हैंडी

72 वर्षीय पुरुषोत्तम उपाध्याय और उनके साथी दौराला में दो साल पहले तक होली गाने की परंपरा को जीवित रखे हुए थे। वह बताते हैं कि पिछले साल कोरोना के चलते लोगों में भय था, इसके लिए होली नहीं गाई गई। इस बार उनकी आंखों का आपरेशन हुआ है। दौराला में माता के मंदिर में दुल्हैंडी के अगले दिन तिल्हैंडी का मेला लगता है। इसमें मेरठ के विभिन्न स्थानों से होली गीत गाने वाली मंडलियां आती थीं। अब इनकी संख्या गिनी-चुनी ही है, लेकिन यह परंपरा आज भी अस्तित्व में है।

आठ साल पहले अंतिम बार गाई थी मंच पर होली

रासना गांव निवासी 75 वर्षीय रतिभान ने बताया कि वह होली गाने की परंपरा से सात-आठ साल पहले तक जुड़े रहे। बालेश्वर, बलजीत, वेदप्रकाश महेंद्र आदि टोली में शामिल थे। होली गाने के लिए दूसरे गांवों से भी बुलावा आता था। बताया कि उनके पूर्वज घीसा राम रचित गीत गाते थे। होली गीतों में महाभारत, राजा हरिश्चंद्र, रामायण और लोक कथाएं गाई जाती थीं। इस परंपरा को संजोने की जरूरत है। छह-सात साल पहले एनएएस कालेज के एसोसिएट प्रोफेसर देवेश शर्मा की पहल पर भैंसाली शहीद स्मारक पर क्रांति दिवस पर होली गीत का कार्यक्रम हुआ था, जिसमें उन्होंने अपने सभी साथियों के साथ मंच पर अंतिम बार होली गीत गए थे।

वहीं, बुढ़ाना गेट जवाहर बुक डिपो के जीतेंद्र अग्रवाल ने 30 वर्ष पुराने समय की याद ताजा करते हुए बताया कि उस समय वाद्य के रूप में कांसे की थाली और मृदंग का प्रयोग होता था। जिसकी गूंज दूर तक जाती थी। झाल, मंजीरा, चिमटा, ढोलक बजते थे। कम से कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 30 लेखकों की ढाई सौ पुस्तकें पहले प्रकाशित होती थीं। बिक्री न होने से अब केवल एक दर्जन पुस्तकें प्रिट हो रही हैं। बताया कि इस परंपरा को जीवित रखने के लिए शहर में कुछ स्थानों पर कार्यक्रम होने चाहिए।


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