जावेद-शबाना ने कहा, पढ़ाई के साथ कला-संस्कृति से भी जुड़ें युवा
कोरोना काल में भी स्पिक मैके देश के युवाओं को कला और संस्कृति से जोड़े रखने की भरपूर कोशिश कर रहा है। संस्था की ओर से भारतीय कला व संस्कृति से सुसज्जित कार्यक्रम अनुभव का आनलाइन आयोजन किया जा रहा है।
मेरठ, जेएनएन । कोरोना काल में भी स्पिक मैके देश के युवाओं को कला और संस्कृति से जोड़े रखने की भरपूर कोशिश कर रहा है। संस्था की ओर से भारतीय कला व संस्कृति से सुसज्जित कार्यक्रम 'अनुभव' का आनलाइन आयोजन किया जा रहा है। इसी कड़ी में भारतीय सिनेमा के नामचीन पटकथा लेखक व शायर जावेद अख्तर और अदाकारा शबाना आजमी से छात्रों का संवाद कराया गया। हर्ष का विषय है कि आनलाइन हुए इस कार्यक्रम के संचालन की जिम्मेदारी मेरठ छावनी स्थित दीवान पब्लिक स्कूल को मिली। स्पिक मैके से जावेद और शबाना का जुड़ाव करीब ढाई दशक का रहा है। उन्होंने युवा पीढ़ी से इस रिश्ते के अनुभवों को साझा किया और उनके सवालों के जवाब भी दिए।
देश भर के छात्र-छात्राओं से जुड़ने का अवसर मिलने पर जावेद और शबाना ने स्पिक मैके का आभार जताया। बच्चों को पढ़ाई के साथ ही देश की कला और संस्कृति से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। कार्यक्रम के दौरान जावेद अख्तर ने जज्बा, वक्त क्या है और खेल क्या है, शीर्षक से तीन कविताएं सुनाई। इन कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद शबाना आजमी ने किया। कार्यक्रम के दौरान दीवान पब्लिक स्कूल के दो छात्रों निकिता राणा और सुयश सैनी को जावेद और शबाना आजमी से प्रश्न पूछने का मौका मिला।
छात्रों के सवाल और जावेद-शबाना के जवाब
-कैफी आजमी और जांनिसार अख्तर ने आपके विचारों और जीवन को कैसे प्रभावित किया?
-निकिता राणा, कक्षा 10वीं, दीवान पब्लिक स्कूल
शबाना आजमी : मेरे पिता कैफी आजमी के साथ मेरा बहुत गहरा रिश्ता था। उन्होंने बेटी समझकर कभी अंतर नहीं किया। हमेशा मेरे विचारों को महत्व दिया और आत्मविश्वास बढ़ाया। बचपन में जब हमारे घर में उर्दू की महफिलें होती थीं तब देखकर अच्छा लगता था लेकिन ज्यादा कुछ समझ में नहीं आता था। मैं पर्दे के पीछे से झांकती थी। तब पिता मुझे बुलाकर पास बिठाते और कहते कि पर्दे के पीछे नहीं पास बैठकर सुनिये। शर्त यह होती थी कि जब सुबह स्कूल जाना हो तो यह मत कहना कि रात सोने में देर हुई इसलिए स्कूल नहीं जाना है। उन्होंने हमेशा अपनी जिंदगी में बच्चों को शामिल किया। बहुत अच्छी सीख दी। जब मैं अभिनेत्री बनना चाहती थी तब उनसे पूछा कि क्या आप मेरा समर्थन करेंगे। उन्होंने कहा कि अपने लिए जो भी निर्णय लोगी उसमें मेरा समर्थन होगा। अगर मोची भी बनना चाहो तो समर्थन है लेकिन स्वयं यह बोलो कि मैं दुनिया का सबसे बेहतरीन मोची बनूंगी।
जावेद अख्तर : बच्चे वह नहीं करते हैं जो उन्हें करने के लिए कहा जाता है। बच्चे वही करते हैं जो बड़ों को करते हुए देखते हैं। जो बातें घर में होती हैं उनमें आधा सुनते हैं। आधी याद रह जाती हैं। वह भी उस समय समझ नहीं आती बल्कि बड़े होने पर कई साल बाद समझ में आती हैं। यदि आपकी परवरिश मूल्यवान परिवार में हुई है जहां खुले विचारों के लोग हैं, धर्मनिर्पेक्षता है, साहित्य है, कविता है, कला के प्रति आदर-सम्मान है, तो वह आपमें स्वयं ही आ जाता है। हम लोग इस मामले में नसीब वाले हैं कि हमारे परिवार, रिश्तेदार कला से जुड़े थे। मैंने कैफी साहब के गुजर जाने के बाद एक कविता लिखी थी। उसकी शुरुआती पंक्ति थी, अजीब आदमी था वो, मोहब्बतों का गीत था, बगावतों का राग था, कभी वो सिर्फ फूल था, कभी वो सिर्फ आग था, अजीब आदमी था वो। उनकी कविता 'औरत' में महज शारीरिक सौंदर्य का बखान नहीं बल्कि प्रेम व वैचारिक नजरिया भी झलकता है।
-स्कूल स्तर पर उर्दू शिक्षा को कैसे प्रोत्साहित किया जाए?
-सुयश सैनी, कक्षा 10वीं, दीवान पब्लिक स्कूल
जावेद अख्तर : यदि स्वजन मिलकर मांग करें तो स्कूल जरूर उर्दू भाषा को पढ़ाएंगे। लेकिन एक कक्षा संचालित करने के लिए कम से कम 15 बच्चे तो होने ही चाहिए। तभी शिक्षक भी रखा जा सकता है। उर्दू के बारे में बहुत सी जानकारी लोगों को नहीं है। हर भाषा का अपना व्याकरण होता है और जब तक वह व्याकरण चल रहा है आप किसी भी भाषा में बोलें व्याकरण दिखाई व सुनाई देगा। उर्दू और हिदी का व्याकरण एक ही है। दोनों ही खड़ी बोली से निकली हैं जो दिल्ली, हरियाणा के आस-पास बोली जाती रही हैं। यह भाषा जब पर्सियन स्क्रिप्ट में लिखी गई तो इसे उर्दू कहा गया। इसे देवनागरी जोकि संस्कृत की स्क्रिप्ट है, में लिखा गया तो हिदी कहा गया। कमाल की बात यह है कि शुरू में उर्दू का नाम हिदवी था।