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पहले दादी, नानी से किस्से सुनते थे, फिर लौट रहा दास्तां का दौर

एक दौर में दादी- नानी बचों को कई सारे किस्से और कहानियां सुनाती थीं लेकिन धीरे- धीरे उन कहानियों से हम दूर होते गए।

By JagranEdited By: Published: Thu, 12 Dec 2019 03:00 AM (IST)Updated: Thu, 12 Dec 2019 06:03 AM (IST)
पहले दादी, नानी से किस्से सुनते थे, फिर लौट रहा दास्तां का दौर
पहले दादी, नानी से किस्से सुनते थे, फिर लौट रहा दास्तां का दौर

मेरठ, जेएनएन। एक दौर में दादी- नानी बच्चों को कई सारे किस्से और कहानियां सुनाती थीं, लेकिन धीरे- धीरे उन कहानियों से हम दूर होते गए। अब एक बार फिर दास्तानों, किस्सों का दौर लौटने लगा है। आज की दास्तानों में फंतासी नहीं, जीवन और समाज की सच्चाई है। लेखक हिमांशु बाजपेयी ऐसी ही दास्तान सुनाने वाले फनकार हैं, जिन्होंने अपनी किताब 'किस्सा- किस्सा लखनउवा' के माध्यम से लखनऊ के आम लोगों के किस्से को रोचक अंदाज में लिखा है। बुधवार को वे होटल क्रिस्टल में मेरठ के साहित्य प्रेमियों से रूबरू हुए। उनकी आवाज और अंदाज में किस्से सुनकर हर कोई भावविभोर हो गया। शहर में यह अवसर 'कलम' श्रृंखला के तहत प्राप्त हुआ। प्रभा फाउंडेशन की ओर से 'अहसास वुमैन' के सहयोग से यह कार्यक्रम हुआ, जिसमें दैनिक जागरण मीडिया पार्टनर रहा। पुस्तक के लेखक हिमांशु बाजपेयी से चौ. चरण सिंह विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के अध्यक्ष डा. असलम जमशेदपुरी ने दास्तानों को लेकर चर्चा की। संचालन 'अहसास वुमैन' मेरठ की अंशु मेहरा और गरिमा मित्तल ने किया।

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नफरतों को दूर करने का प्रयास कर रही हैं दास्तां

लेखक हिमांशु बाजपेयी अपनी पुस्तक में लिखे किस्से के प्रमुख अंशों को भी बताया। इसमें उन्होंने लखनऊ की तहजीब, लखनऊ की बोली, अंदाज और आम लोगों की रवानगी का जीवंत अनुभव कराया। मेरठ में लखनऊ के आम किस्सों को सुनकर लोग लखनऊ के दीवाने हो गए। पत्रकारिता से लेखन की ओर आए हिमांशु बाजपेयी ने कहा कि दास्तां सुनाना उनका एक पूर्णकालिक व्यवसाय बन गया है। किस्सा- किस्सा लखनउवा में उन्होंने लखनऊ के आम लोग, जिसमें ठेले वालों, पान बेचने वाले, गली में रहने वाले लोगों के किस्से हैं। ये ऐसे लोग हैं, जिन्होंने लखनऊ को लखनऊ बनाया है। उन्होंने अपनी पुस्तक में दिए किस्से नवाब के पेट में दर्द, आम आदि को भी सुनाया। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि उनकी दास्तां समाज में फैलाई जा रही नफरतों को दूर करने का प्रयास कर रही हैं।

भाषा पर कोई बंदिश नहीं

हिमांशु बाजपेयी ने कहा कि भाषा और जुबान धर्म से नहीं बनतीं, बल्कि उस क्षेत्र से बनती हैं जिसमें लोग रहते हैं। उन्होंने बनारस हिदू विश्वविद्यालय में एक मुस्लिम के संस्कृत पढ़ाने पर हुए विरोध को उचित नहीं माना। उन्होंने कहा कि बहुत से हिदू अच्छी उर्दू बोलते हैं, पढ़ाते हैं। मुस्लिम संस्कृत के विद्वान हैं। भाषा पर किसी तरह की बंदिश नहीं लगनी चाहिए। उन्होंने बताया कि जो माहौल बना है, उसमें हमें मोहब्बत के संदेश को आगे बढ़ाने की जरूरत है। अगर वाट्सएप के माध्यम से कुछ गलत आता है तो उसे अपने स्तर पर रोकें।

एक दाढ़ी आम खाने की शौकीन

हिमांशु बाजपेयी ने अपनी पुस्तक में लखनऊ की मैंगो पार्टी और मलीहाबाद को जोड़ते हुए लिखे किस्से को सुनाया। इसमें उन्होंने एक व्यक्ति के एक दाढ़ी आम खाने के पैमाने को बताया। जिस पर सभी ठहाके लगाकर हंस पड़े।

मेरठ के किस्से लिखने की पेशकश

चर्चा के दौरान डा. असलम जमशेदपुरी ने मेरठ की क्रांति और यहां के किस्से लिखने के लिए हिमांशु से कहा, जिस पर हिमांशु बाजपेयी ने कहा कि यहां तो किस्से ही किस्से हैं, वह जरूर लिखना चाहेंगे।

लेखक के विषय में

हिमांशु बाजपेयी लखनऊ में रचे बसे हैं। उनकी किताब 'किस्सा- किस्सा लखनउवा' पाठकों ने खूब सराही है। बाजपेयी ने वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिदी विश्वविद्यालय से लखनऊ के ऐतिहासिक नवल किशोर प्रेस पर पीएचडी की है। वे लखनऊ और संस्कृति पर लिखते हैं।

सभी को लेखक के हस्ताक्षर में मिली किताब

कार्यक्रम में सभी साहित्य प्रेमियों को हिमांशु बाजपेयी की किताब उनके हस्ताक्षर के साथ मिली। क्लीनिकल साइकोलॉलिस्ट डा. सीमा शर्मा ने उन्हें स्मृति चिह्न देकर स्वागत किया। सुनीता गर्ग ने डा. असलम को बुके दिया।

साहित्य प्रेमियों के कुछ सवाल

1- किस्सा क्या उर्दू की विधा है या हिदी की? -अशोक शर्मा, शिक्षक मेरठ कॉलेज

2- बच्चे किस्सा सुनाने को कैसे करियर बना सकते हैं? मृणालिनी अनंत, प्रिंसिपल

3- क्या लड़कियां भी किस्से और दास्तां सुना सकती हैं? निहारिका शुक्ला, शोधार्थी, एनएएस कॉलेज

हिमांशु के जवाब

1- किस्से उर्दू, हिदी किसी भी भाषा में लिखे, सुने जा सकते हैं, बस अंदाज अलग होना चाहिए।

2- कई बार अभिभावक बच्चों के हुनर को नहीं देख पाते। शिक्षक की यहां जिम्मेदारी बढ़ जाती है। किस्सागोई के लिए अच्छी याददाश्त, जुबान और सही उच्चारण की जरूरत है। लगातार रिहर्सल से इसमें महारत हासिल हो सकती है। करियर तो यह है ही।

3- बहुत-सी महिलाएं भी प्रोफेशनल तरीके से किस्से सुनाती हैं। फौजिया की दास्तां अपने आप में अलग हैं। इसमें महिला - पुरुष जैसी कोई बात नहीं है।

अब्दुल्ला की शायरी ने छू लिया दिल..

कार्यक्रम में चौथी कक्षा में पढ़ने वाले अब्दुल्ला ने अपनी शायरी सुनाकर सभी के दिल को छू लिया।


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