Special column: नहीं रहा व्यापारियों की व संघ एकता, नेतृत्व की क्षमता और प्रशासन से संवाद में भी हो गया बदलाव Meerut, News
व्यापारियों की संघी एकता को क्या हुआ कहां गया वह जुझारूपन और क्यों बदल गया संवाद का तरीका? जाने इस खबर के माध्यम से मेरठ का व्यापारिक इतिहास।
रवि प्रकाश तिवारी, मेरठ। मेरठ में व्यापारी सबसे ताकतवर होते थे और सबसे मजबूत संगठन संयुक्त व्यापार संघ। हालांकि पिछले दिनों में कुछ ऐसी घटना घटी जिसने संगठन की साख पर सवाल खड़े किए। लॉकडाउन में बाजारों के सशर्त संचालन को लेकर व्यापारी नेताओं की भूमिका रही हो या प्रशासन के साथ संवाद का तौर-तरीका, पुराने रुतबे को झुठलाने वाली साबित हुईं। हुआ यूं कि जिले के मुखिया अपनी शर्तों पर व्यापारी नेताओं से बतियाने को राजी हुए। शर्त भी उन्होंने जनप्रतिनिधियों के सामने लगाई, और व्यापारी मतों से साख बनाने वाले नेताजी भी बिना शर्त राजी हो गए। बात बैठक के दिन की है। एक गुट पांच से अधिक सदस्यों को लेकर पहुंचा तो मुखिया ने टोका, शर्त से अधिक नंबर होंगे तो बात नहीं होगी। मेरठ की राजनीति को सिक्कों की तरह उछालने वाले संघ के मौजूदा नेताओं को आखिरकार अपने साथियों को बैठक से बाहर करना पड़ा।
जमीनी लड़ाई वाट्सएप पर छोड़ी
व्यापारी हितों के लिए पिछले दिनों चार नेताओं ने जमीन पर बैठकर धरना दिया। धारा 144 में मुकदमे की परवाह किए बगैर कुछ युवा, कुछ अनुभवी ने बाजी लगाई लेकिन इनमें से दो का जुझारूपन अपनों की राजनीति के बीच ही दम तोड़ गया। धरने के बाद प्रशासन के साथ किसी तरह मीटिंग मैनेज हुई और गुट के पांच भाइयों को बैठक में शामिल होने का समय आया तो दो को सिरे से नजरअंदाज कर दिया गया। गुट नेता ने राजनीतिक और संगठन की फंडिंग के समीकरण को ध्यान में रखते हुए अपनी अलग टीम बनाई। यह उन दो जमीनी आंदोलनकारियों को नागवार गुजरी। शाम होते-होते वाट्सएप ग्रुप से दोनों लेफ्ट हो गए। वे आहत हैं, अपनी उपेक्षा पर रूष्ठ भी। एक ने तो व्यापारी राजनीति को ही नमस्ते कह दिया। ये वही दो पदाधिकारी हैं, जो हमेशा अपने गुट के लिए मुखर रहे हैं।
क्यों याद आते हैं खन्नाजी
बात जब भी संयुक्त व्यापार संघ की आती है, व्यापारी ओपी खन्ना को याद जरूर करते हैं। आखिर क्या वजह है कि 1978 में स्थापित व्यापार संघ के तब से अब तक के सर्वमान्य नेता के तौर पर खन्नाजी याद किए जाते हैं। आइए, हम जान लें और मौजूदा नेता समझ लें। ओपी खन्ना व्यापारी हितों की लड़ाई को न सिर्फ सड़कों पर लेकर आए बल्कि उसे व्यापारियों की शर्तों पर ही अंजाम तक पहुंचाया। वस्तु अधिनियम की धारा 3/7 जिसे व्यापारी धारा 307 भी कहते थे, उसकी लड़ाई खन्नाजी की अगुवाई में लड़ी गई। सरकार ने भी राहत दी। जरूरत पडऩे पर व्यापारियों के हितों की खातिर प्रशासन से सीधा टकराव, पखवाड़ेभर तक भूख हड़ताल, आक्रामक रैलियां, धरने ऐसे ही नेताओं की अगुवाई में हुए और संघ की साख बनी। आज के रणबांकुरे सोचें कि आज भी बार-बार खन्नाजी ही क्यों याद आते हैं?
सुविधा शुल्क का बाजार रोकिए
महामारी के इस वेदनापूर्ण काल को भी कुछ लोगों ने कमाई का जरिया बनाया। किसी की मजबूरी के नाम पर कमाया तो किसी के सुविधाभोग के लिए जिम्मेदारों ने सुविधा शुल्क की वसूली की। बाजार की ही बतियाएं तो मुखिया ने कोरोना संक्रमण का हवाला देकर पूर्णबंदी का फार्मूला अपनाया, लेकिन अधीनस्थों ने सुविधा शुल्क के सहारे चोरीे-छिपे दुकानें खुलवाईं, ग्राहकों तक सप्लाई करवाई। यह कहानी किसी एक बाजार की नहीं, पूरे शहर की है। जिले का मुखिया होने के नाते इसकी जानकारी आप के पास नहीं है तो धन्य है आपका तंत्र, जानकारी जुटाने के खुफिया माध्यम। और अगर है तो फिर गलत रास्ते को बढ़ावा क्यों? इस चोरी-छिपे की बिक्री से तो सरकार के खजाने पर भी चोट पड़ रही है। बाजार क्या, पासों के बंदरबांट की शिकायत लखनऊ तक पहुंची, उस पर भी अब तक स्टैंड क्लियर न होना चिंताजनक है।