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मैं हूं सिसकती सीताकुंड, अब सुनो मेरी पुकार

मैं सीताकुंड हूं। मेरा उछ्वव सतयुग के चक्रवर्ती राजा नहुष के हाथों हुआ। मैं उनकी 365 वीं संतान हूं। मेरी गोद में आकर राजा नहुष को चर्मरोग से मुक्ति मिली। मैंने तुम्हारे इस नगर का हर कालखंड देखा है।

By JagranEdited By: Published: Mon, 03 Jun 2019 06:15 PM (IST)Updated: Mon, 03 Jun 2019 06:15 PM (IST)
मैं हूं सिसकती सीताकुंड, अब सुनो मेरी पुकार
मैं हूं सिसकती सीताकुंड, अब सुनो मेरी पुकार

अरविद राय, घोसी (मऊ) :

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मैं सीताकुंड हूं। मेरा उछ्वव सतयुग के चक्रवर्ती राजा नहुष के हाथों हुआ। मैं उनकी 365 वीं संतान हूं। मेरी गोद में आकर राजा नहुष को चर्मरोग से मुक्ति मिली। मैंने तुम्हारे इस नगर का हर कालखंड देखा है। यहां पर नहुष के वंशज राम, लक्ष्मण और सीता के विश्राम के दिन मुझे याद हैं। इन तमाम बातों की दास्तान बहुत लंबी है। मेरा निर्मल जल तुमने अपने नाबदान से गंदा कर दिया। 2.1870 हेक्टेयर में फैली मेरी काया पर अतिक्रमण करते वक्त तुमने तनिक भी चितन नहीं किया। मेरे सीने पर जलकुंभी उग आई है पर तुम संज्ञा शून्य हो। वर्ष 2013 में मेरे चंद लायक बेटों ने मुझे जीवनदान देने का प्रयास किया पर बाद में सब कुछ पूर्ववत हो गया। मेरी जर्जर काया तुमसे सवाल करना चाहती है। मैंने तुम्हें सदा दिया है, मांगा कुछ नहीं। आज मांगने का मन है कि मुझे मेरा पुराना स्वरूप दे दो। कब तक सहना होगा संत्रास? तुमसे तुम्हारी ही भाषा में मैं ने आज अपना हिसाब मांगा है।

बात तब की है जब न यह काली सड़क रही ना मोटरगाड़ी। मैं ने अपने किनारे से होकर जाने वाली पगडंडी से गुजरने वाले रथी और कारिदों को एक समान स्नेह दिया है। मेरे निर्मल, साफ और शीतल जल से सबने प्यास बुझाई है। मेरे चारों तरफ बडे़ और विशालकाय वृक्षों की छांव में सबने विश्राम किया है। यहां से राजकुमार सिद्धार्थ भगवान तथागत बनकर गुजरे हैं। ऋषि, महर्षि, पीर, फकीर, संत और महात्माओं को मैंने एक समान समझा। भगवान परशुराम को मैंने दो हरियों की मिलन स्थली दोहरीघाट जाते देखा है। नंदलाल कृष्ण के सखा पांडव मेरे किनारे से ही गुजरते हुए विराटपुर(बैराटपुर) पहुंचे। ताड़का वध को मुनि विश्वामित्र संग राम और लक्ष्मण यहीं से गुजरे। क्या-क्या बताऊं तुम्हें। काजी हबीबुल्लाह से लेकर ख्वाजा बाबा और बाबा मखदूम तक ने घंटों मेरे किनारे बैठकर इबादत की है। मेरे शीतल जल के बीच एक स्थान ऐसा है जहां पानी बेहद गरम है। उस स्थान पर स्नान करने वाले हरेक को मैंने चर्मरोग से मुक्ति प्रदान किया। मैं ने कोई फर्क नहीं किया। गत पचास वर्षो में अपनी दुर्दशा देख मैंने मान लिया कि अब मेरे चली-चला की बेला आ गई है। 23 जून 2013 को जब दोनों ही संप्रदायों के बेटों ने मेरे सीने पर सांप सी लोट रही जलकुंभी हटाई तो शकुन मिला। इनकी चंद दिनों की भावनात्मक ललक अब बस छठ व्रत पर दिखती है। जब जनप्रतिनिधियों ने मेरे सुंदरीकरएा और नगर पंचायत ने गंदे पानी की धारा मोड़ मुढे स्वच्छ रखने की योजना बनाई तो मेरी छाती चौड़ी हो गई है। पर अब लगता है कि मैं भी छली गई हूं। मेरे किनारों पर मिट्टी डाल कर कब्जा तो अब यागल हो गया है। तुम सभी से बस यही कहना है कि हो सके तो मुझे मेरा खोया वजूद लौटा दो।

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