अंग्रेज हुए आल्हा के दीवाने, भूल गए फांसी देने का समय
अभिषेक द्विवेदी महोबा आल्हा गायन अपने आप में अनूठा है और इसको सुनते ही भुजाएं फड़कने ल
अभिषेक द्विवेदी, महोबा : आल्हा गायन अपने आप में अनूठा है और इसको सुनते ही भुजाएं फड़कने लगती हैं। यह केवल बुंदेलों के दिलों में ही नहीं बसता है, बल्कि अंग्रेजी अफसर भी आल्हा के दीवाने हो गए थे। अंग्रेजी हुकूमत में दो भाईयों की सजा भी आल्हा गायन की वजह से टल गई थी। बात बुंदेलखंड के आल्हा सम्राट स्व. नाना शिवराम सिंह की कहें तो उन्होंने अंग्रेजी शासन से लेकर आठवें दशक तक अपने गायन से बुंदेलों को कायल बना दिया।
इतिहासकार डा. एलसी अनुरागी व संतोष पटैरिया बताते है कि हमीरपुर के थाना भरुआ सुमेरपुर के ग्राम सुरौली में सेना में हवलदार लिलंबर सिंह के घर 1895 में जन्मे शिवराम सिंह नौ साल की उम्र से ही आल्हा गाने लगे थे। खरेला ग्राम निवासी नाना भुजबल सिंह के यहां वह पले बढ़े। उन्होंने बैहारी निवासी धनीराम शर्मा ने अनूठी बुंदेली लोक गायन की विधाएं सीखी। वर्ष 1940 में अंग्रेजी हुकूमत में शिवराम सिंह के दो भाइयों द्वारिका सिंह व गौरीशंकर सिंह को हत्या के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई। निर्धारित समय से पहले उन्होंने अंतिम इच्छा में बड़े भाई शिवराम सिंह का आल्हा गायन सुनने की बात कही। हमीरपुर जेल में उन्होंने वीर, करुण और श्रृंगार रस से लबरेज आल्हा की वीर गाथाएं सुनाई।
शहर के ग्राम छिकहरा निवासी वंशगोपाल यादव बताते है कि कारागार में आल्हा सुन रहे अंग्रेजी अफसर गायकी में इतने खो गए कि उन्हें फांसी का समय ही याद नहीं रहा। इसके बाद दोनों भाईयों की फांसी की सजा छह-छह माह की कैद में बदल गई। वर्ष 1975 में निधन से पहले आल्हा गायक स्व. नाना शिवराम ने अपनी गायकी से अपनी अमित छाप छोड़ी। खरेला ग्राम में उनके स्वजन आज भी उनकी याद में लोक विधाओं से जुड़े कार्यक्रम कराते हैं।