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बे पर्दा होता आकाश, धरती हुई उदास

जागरण संवाददाता, महोबा : साल दर साल गर्मी बढ़ रही है। इस बार बुंदेलखंड में तापमान काफी ऊंचाई पर है।

By JagranEdited By: Published: Fri, 01 Jun 2018 11:15 PM (IST)Updated: Fri, 01 Jun 2018 11:15 PM (IST)
बे पर्दा होता आकाश, धरती हुई उदास
बे पर्दा होता आकाश, धरती हुई उदास

जागरण संवाददाता, महोबा : साल दर साल गर्मी बढ़ रही है। इस बार बुंदेलखंड में तापमान काफी ऊंचाई पर है। पहाड़ सुलग रहे हैं। पारा रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। विगत वर्ष लू के थपेड़ों से 10 से अधिक लोग मारे गए और इस वर्ष अभी तक यह संख्या 10 पार कर चुकी है। इन आंकड़ों में गांव-कस्बों में लू से मरने वाले तथा फैले डायरिया जैसे रोगों से मरने वाले शामिल नहीं हैं।

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गर्मी से मुकाबले के लिए संपन्न वर्ग के पास कूलर और एसी है। वह वातानुकूलित गाड़ियों में सफर कर रहा है। सन स्क्रीन लोशन और क्रीम लगाता है। वह हिल स्टेशन पर छुट्टियां मनाने चला जाता है। गरीब क्या करे? कैसे अपनी हिफाजत करे? दैनिक मजदूरों को कामकाज के लिए बाहर निकलना बेहद तकलीफ भरा हो गया है। पानी की तलाश में बुंदेलखंड के लोग मीलों भटक रहे हैं। नदियां और अन्य जलाशय सूख रहे हैं, लेकिन डिब्बा बंद ठंडा पानी अमीरों के लिए उपलब्ध है। गरीबों के लिए न शीतल पेय है, न प्राकृतिक वातानुकूलन के साधन। पेड़ों की सुलभ छांव को हमने विकास के नाम पर निगल लिया । शहरों में रिक्शे वाले या मजदूरों के सुस्ताने के छांव अब दिखाई नहीं देते। विकास के नाम पर आकाश को बेपरदा किया जा रहा है और धरती को जलाया जा रहा है।

पटते जा रहे तालाब

गांव के सार्वजनिक तालाब मछली पालकों को पट्टे पर दे दिए जाने के कारण अब लोग तपती गरमी में उनमें नहाकर राहत भी नहीं पा सकते। बड़े किसानों या सामंतों ने अपने ताल-तलैयों को पाटकर खेत बना लिए हैं। मिट्टी के घर एवं बर्तनों का प्रचलन खत्म होने से तालाबों से मिट्टी नहीं निकाली जाती। उनकी गहराई कम होती गई। पानी का संचयन न होने के कारण हवा से ठंडक गायब हो गई । कॉलोनियों या सड़कों के निर्माण के नाम पर बाग-बगीचे और जंगल उजाड़ दिए गए।

स्वयं उजाड़ दी हरियाली

पहले सघन बगीचों से गुजरती गर्म हवा पत्तों को छूकर ठंडी हो जाती थी, क्योंकि पेड़ों की सघनता के कारण वातावरण में नमी बनी रहती थी। अब तो नग्न धरती की हवा रूखी-सूखी हो गई है। पहले फूस सस्ते और सबके लिए उपलब्ध थे। फूस की झोपड़ियां गरीबों को गर्मी से बचाती थीं। लेकिन अब विकास की मार ऐसी पड़ी है कि फूस, बांस, मूंज सब दुर्लभ या महंगे हो चले हैं।

सुझाव

पृथ्वी पर गर्माहट बढ़ रही है, इसे सिद्ध करने के लिए आज किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। रिकार्ड में दर्ज 11 सर्वाधिक गर्म वर्ष 1990 के बाद के हैं। ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है और पर्वतों पर ग्लेशियर घट रहे हैं। समुद्री स्तर बढ़ने से जनमसूहों का पलायन, खाद्य आपूर्ति बाधित होने के कारण कुपोषण, रोगाणुओं के प्रसार में सहायक कीटों के हमलों में वृद्धि और जलजनित रोग ऐसी समस्याएं हैं जिनकी तीव्रता विकासशील देशों में बढ़ सकती है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए गरीब जिम्मेदार नहीं हैं। प्रकृति का भोग व्यवसायी करता है। गरीब हमेशा प्रकृति के साथ जीता है। प्रकृति उसे पालती है और वह प्रकृति का संव‌र्द्धन करता है। आदिवासी जंगलों की हिफाजत करते हैं, तो किसान, जमीन और ¨सचाई के परंपरागत स्रोतों को महफूज रखते हैं। कृषि को बढ़ावा मिले, किसानों को संसाधन मिले, जंगल बढ़ें, पौधों की हिफाजत और तालाबों को पुराना कलेवर दें। अविनाश मिश्रा, पर्यावरणविद्।

समाधान

अब जंगल, जमीन, नदी, तालाब सब खतरे में हैं। सब पर व्यवसायियों की नजर है। वर्तमान को भोगने के लालच में हमेशा के लिए प्राकृतिक संतुलन को नष्ट कर रहे हैं। प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने का परिणाम ही है कि तापमान में वृद्धि हो रही है। हमें सबसे पहले प्रकृति का संतुलन बनाना होगा। नदी, तालाब संवारने होंगे। धरती की गागर को भरना होगा। अधिक से अधिक हरियाली की व्यवस्था करनी होगी। प्रकृति प्रेमी, तारा पाटकर।


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