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World Migrant Day 2020: शहर की माटी से निकला समृद्धि का प्रकाश, माटी से जुड़कर बन गए वटवृक्ष

World Migrant Day 2020 शहर लखनऊ की आबोहवा उनके जीवन में ऐसी घुली कि वह यहीं के होकर रह गए। 18 दिसंबर को विश्व प्रवासी दिवस पर शहर-ए-लखनऊ के विकास में मील का पत्थर बने ऐसे कुछ प्रवास‍ियों ने बताई अपनी कहानी।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Fri, 18 Dec 2020 09:21 AM (IST)Updated: Fri, 18 Dec 2020 09:21 AM (IST)
World Migrant Day 2020: शहर की माटी से निकला समृद्धि का प्रकाश, माटी से जुड़कर बन गए वटवृक्ष
गुजरात से कारोबार करने 1992 में आए परेश पाटिल की निरमा की पहली एजेंसी राजधानी में खोली।

लखनऊ, [जितेंद्र उपाध्याय]। अपनी मूल पहचान काे संजोए समृद्धि के प्रकाश की तलाश में वर्षों पहले राजधानी आए प्रवासियों ने यहां की मिट्टी में रहकर जीवन में समृद्धि प्रकाश फैलाया जिसके चलते समाज को न केवल एक नई दिशा मिली बल्कि रोजगार के अवसर देकर दूसरों के जीवन में भी उन्नति लाने का काम किया। शहर लखनऊ की आबोहवा उनके जीवन में ऐसी घुली कि वह यहीं के होकर रह गए। 18 दिसंबर को विश्व प्रवासी दिवस पर शहर-ए-लखनऊ के विकास में मील का पत्थर बने ऐसे कुछ प्रवासी समृद्धशाली लोगों के बारे में हम आपको बताते हैं।

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गुजरात : वाशिंग पाउडर की पहली एजेंसी मिली

गुजरात से कारोबार करने 1992 में आए परेश पाटिल की निरमा की पहली एजेंसी राजधानी में खोली। यहां की संस्कृति, भाषा व पहनावे के साथ खुद को समाहित कर लिया और यहीं के होकर रह गए। टाइल्स के कारोबार के साथ ही एक दुग्ध उत्पादन कंपनी के राजधानी में आने से गुजराती समाज के परिवारों की संख्या करीब 250 हो गई है, लेकिन अब पूरे लखनउवा अंदाज उनमे रचबस गया है। बच्चे तो अब गुजराती भी नहीं समझ पाते। गुजरात परदेश और लखनऊ अपना हो गया है। परेश का कहना है कि जिले स्तर पर एजेंसी मिली तो यहां के लोगों ने कारोबार को बढ़ाने में मेरी मदत की। उधार का समय निर्धारित रहता। बिजनेस का यही सबसे बड़ा फंडा है। ऐशबाग में वॉशिंग पाउडर की एजेंसी के साथ जुड़कर सैकड़ों लोगों को रोजगार देकर शहर को कारोबार का हब बनाने का काम कर रहे हैं। शुरुआत में लोगों ने सहारा दिया और अब कुछ बदलाव आया है, लेकिन अब तो यहां का हर रंग अपना लगने लगा है। 

पंजाबी : फ्यूलपंप रिपेयर की पहली दुकान से रियल स्टेट तक का सफर

शहर में वाहनों के बड़े शो रूम की बात होती है और रियल स्टेट में चर्चा हाेती है तो पंजाबी समाज के मंजीत सिंह तलवार का नाम आता है। एक बड़ी आटोमोबाइल कंपनी के कई शोरूम शहर के हर कोने में इनकी पहचान को बताती है। मंजीत बताते हैं कि 1951 में दादा दीवान चंद्र मेरे पिता गुरु बख्श सिंह के साथ राजधानी के डालीगंज में आए थे। 1960 में लालबाग में पहली फ्यूलपंप रिपेयर दुकान पिता जी ने खाेली। उस समय रिपेयर की कोई दुकान नहीं थी। वहां से शुरू हुआ बिजनेस अब मोटर वाहन कंपिनयों के शोरूम और लखनऊ के विकास तक पहुंच गया। जम्मू कश्मीर में टनल निर्माण से लेकर कई विदेशी कंपनियों के साथ मिलकर वह राजधानी के करीब पांच हजार से अधिक लोगों को रोजगार से जोड़े हुए हैं। उनका कहना है कि यहां की सबसे खास बात यह है कि भाषा शैली प्रभावित करने वाली है। अब तो यह शहर दिल में बस गया है। विदेश भी जाते है, लेकिन यहां की खुशबू मुझे ख्रीच ले आती है।

केरल : प्रिंटिंग प्रेस से की कारोबार की शुरुआत

केरल से 1983 में राजधानी आए गाेमतीनगर निवासी ओमना कुट्टन ने एक गाेमतीनगर में प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। केरल समाज के प्रमुख कारोबारी होने के साथ ही प्रिंटिंग प्रेस के माध्मय से सरकारी गैर सरकारी काम करके शहर को अपनी पहचान से जोड़ लिया। उनका कहना है कि यहां की भाषा शैली व मेहमान नवाजी का रंग ऐसा चढ़ा कि हम यहीं के होकर रह गए। शादी के बाद अब तो बच्चे भी यहीं की भाषा बाेलने लगे हैं। मलयम भाषा के साथ उर्दू हिंदी मिक्स भाषा शैली शहर को अलग खड़ा करती है। शुरुआती दौर की बात करें तो लोग पहनावे देखहर अचंभित होते थे, लेकिन धीरे-धीरे सबने अपना बना लिया। फिर यहीं के होकर रहे गए। जन्मभूमि से बढ़कर यह कर्म भूमि हो गई है। अब तो शहर अपना शहर लगने लगा है।

मराठी : आए थे कारोबार करने और यहीं के होकर रह गए

महाराष्ट्र का पश्चिमी क्षेत्र अन्य स्थानों के मुकाबले ज्यादा गरीब है। आर्थिक विपन्नता के उस इलाके को छोड़कर पिता जी काशीनाथ पाटिल राजधानी कारोबार की तलाश में आए और फिर यहीं के हाेकर रह गए। आभूषण के छोटे से कारोबार से बिजनेस आगे बढ़ता गया और फिर अभी तक बढ़ रहा है। न्यू हैदराबाद निवासी उमेश पाटिल ने बताया कि पिता की विरासत को आगे ले जाने का काम कर रहा हूं। शुरुआती दिनों में विश्वास का सौदा करना मुश्किल था। सोने-चांदी के कारोबार में विश्वास पैदा करना सबसे बड़ी चुनौती थी। राजधानी में खुद की अलग पहचान बनी तो लोगों ने अपना बनाना भी शुरू कर दिया। अब तो चौक बाजार अपना बाजार लगने लगा है। पांच दशक से अधिक समय से राजधानी मेें करीब 500 परिवार आकर बस गए और खुद को यहां की संस्कृति में समाहित कर लिया। गणेश चतुर्थी के साथ चौक की चकल्लस का रंग हमको यहां रहने को विवश करता है।

बंगाली : भाईचारे का कायल हो गया

कोलकाता से 1970 में आए राजधानी आए शंकर भौमिक बंगाली समाज के बड़े बिजनेसमैन के रूप में जाने जाते है। उनका कहना है कि कोलकाता की संस्कृति में भाईचारे की कमी है। यहां आया तो और यहीं के होकर रह गए। उनका कहना है यहां एक सबसे अच्छी बात यह है कि आपसी भाईचारा आपको अपना बना लेता है। आप कहीं बैठते हैं, तो यदि कोई आपका भी कोई जानने वाला है और आपका कोई जानने वाला नहीं है तो भी आप चाय पिला देते हैं। कोलकाता में यह चीज नहीं है। एक रुपये भी यदि उधार है तो आपको सामान नहीं मिलेगा। यह वहां पूरे बाजार में नजर आता है,लेकिन यहां लखनऊ में ऐसा कुछ नहीं। नवाबी काल की संस्कृति अभी भी नजर आती है। हीवेट रोड पर मैंने कोलकाता की साड़ी की दुकान है। कोलकाता की साड़ी का सबसे बड़ा शोरूम है। राजधानी के केकेवी के इंटर कॉलेज में पढ़ाई की। यहीं पर नौकरी की। इसके बाद अपना बिजनेस शुरू कर दिया। तहजीब का शहर अब तो अपना सा लगने लगा है। यहां का हर रंग यहां की मिट्टी आपसी भाईचारे को और मजबूत करते हैं। बंगाली क्लब के सचिव के तौर पर बंगाल की संस्कृति को जीवंत करने का काम भी हमने राजधानी में किया। 


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