देववाणी में गेंद और बल्ले का रोमांचक खेल की टिप्पणी संस्कृत में प्रसारित
माथे पर त्रिपुंड और शरीर पर धोती-कुर्ता पहने विद्यार्थी चौके-छक्के जड़ रहे थे और इस रोमांचक खेल की टिप्पणी संस्कृत में प्रसारित की जा रही थी। जिन आंखों ने देखा और जिन कानों ने सुना वह तृप्त हो गए।
लखनऊ, राजू मिश्र। अभी तक यही सुनते आए थे कि अंग्रेजी सीखना इसलिए जरूरी है, क्योंकि यह ज्ञान की भाषा है, रोजगार की भाषा है और संपर्क की भाषा है। विज्ञान, तकनीक और अर्थशास्त्र का ज्ञान देने वाले तमाम शब्द आंग्ल भाषा में ही हैं। लंबे समय से इन शब्दों का हिंदीकरण करने की कसरत चल रही है। अब प्रतीत होता है कि अंग्रेजी के हिमायती वर्ग द्वारा यह प्रपंच कुछ ज्यादा लंबा खींचा गया। प्रमादवश अथवा चेतना में, यह बहस का विषय है। यह काम जल्दी भी हो सकता था। यह चिंतन उत्पन्न हुआ वाराणसी के शास्त्रर्थ महाविद्यालय की उस अनूठी पहल से जो इन दिनों चर्चा में है।
किक्रेट का खेल अंग्रेजों का खेल समझा जाता रहा है। यह अलग बात है कि इसके महारथी अब भारत में हैं। इसकी हिंदी कमेंट्री भी अंग्रेजी शब्दों के बिना संभव नहीं। क्रिकेट की पूरी शब्दावली अंग्रेजी में है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। किंतु शास्त्रर्थ महाविद्यालय ने क्रिकेट की पूरी शब्दावली का संस्कृत में अनुवाद कर डाला और फिर क्रिकेट खेला गया जिसकी पूरी कमेंट्री संस्कृत में की गई। पिछले सप्ताह गुरुवार को यह अनूठा खेल संपूर्णानंद विश्वविद्यालय में आयोजित किया गया। क्रिकेट का मैत्री मैच कुछ ऐसे अनूठे अंदाज में खेला गया कि देखने वाले भी अचंभित हो उठे।
दरअसल, शास्त्रर्थ महाविद्यालय ने इस परंपरा की नींव कोई दशक भर पहले रखी थी। कालेज के स्थापना दिवस पर आयोजित होने वाली क्रिकेट प्रतियोगिता के पीछे उद्देश्य मैत्री मैच खेलना था। फिर सोचा गया कि क्यों न इसे देवभाषा संस्कृत के प्रति आकर्षण का माध्यम बना दिया जाए। बस इसी विचार से चार बरस पहले नया खाका खींचा गया। दो आचार्यो ने खेल की अंग्रेजी शब्दावली को संस्कृत में पिरोने का कार्य किया। आज यह खेल प्रतियोगिता देवभाषा की बढ़ती ग्राह्यता का संदेश दे रही है।
एक तीर से दो निशाने : पारदर्शिता की नीति के तहत उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा किया गया एक बड़ा फैसला एक तीर से दो निशाने साधने वाला है। सरकार ने तय किया है कि उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को अब सिलवाकर ड्रेस उपलब्ध नहीं कराई जाएगी। इसमें भ्रष्टाचार की शिकायतें आती रही हैं। इसे रोकने की कई कोशिशें की गईं, किंतु कारगर साबित नहीं हुईं। दूसरी दिक्कत यह थी कि आमतौर पर बच्चों को काफी विलंब से ड्रेस मिलती थी। कई बार जुलाई में सत्र शुरू हो जाने के बाद ड्रेस नवंबर-दिसंबर तक मिल पाती थी। जो मिलती थी, उसकी फिर से फिटिंग करानी पड़ती थी। अक्सर ड्रेस बच्चों के नाप की नहीं होती थी। कपड़े की क्वालिटी कमीशन के फेर में पहले ही गिर चुकी होती थी। इसलिए तय किया गया कि ड्रेस का पैसा अब सीधे अभिभावकों के खाते में डाला जाएगा, ताकि वह समय और सुविधा से अपने बच्चों की ड्रेस सिलवा सकें। प्रदेश के परिषदीय स्कूलों में करीब डेढ़ करोड़ बच्चे पढ़ते हैं। इस निर्णय से न केवल इन बच्चों को समय से ड्रेस मिल सकेगी, बल्कि स्कूली शिक्षा से वंचित अथवा बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों में इसके प्रति आकर्षण भी बढ़ेगा।
सही नीयत तो सब संभव : बरेली की यह घटना उन लोगों के लिए प्रेरक हो सकती है जो अपने से आगे समाज के लिए भी कुछ सोचते हैं। करना चाहते हैं, लेकिन अकेले होने या संसाधनों के अभाव में कुछ कर नहीं पाते। रुहेलखंड यूनिवर्सटिी के एक युवा असिस्टेंट प्रोफेसर और उनके विद्याíथयों ने इस मिथ को तोड़ा है और साबित किया है कि यदि ठान लें तो सब संभव है।
दरअसल मलिन बस्ती के तमाम गरीब बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। असिस्टेंट प्रोफेसर नवनीत ने सोचा क्यों न इनकी मदद की जाए। पर कैसे, यह बड़ा सवाल था, जिसने कई उलझन पैदा कर रखी थी। अगले दिन उन्होंने इंटरनेट मीडिया में एक संदेश पोस्ट किया। कुछ सामान बेचना है, एक ठेले का प्रबंध हो सकता है? सिर्फ रविवार के लिए। लोगों ने इस पोस्ट को मजाक समझा, लेकिन प्रोफेसर नवनीत हिम्मत नहीं हारे। उन्होंने इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के दर्जन भर अपने विद्याथियों को साथ लिया और सूटेड-बूटेड युवाओं की यह टोली शहर की पॉश कालोनी दीनदयालपुरम में औषधीय पौधे और ताजे फल लेकर पहुंच गई। कुछ ही देर में ये सब बिक गए। लोगों को जब उनके नेक इरादे का पता चला कि वह इससे प्राप्त होने वाली आय गरीब बच्चों की शिक्षा में लगाने जा रहे हैं तो 945 रुपये का सामान 1,900 रुपये में खरीद लिया। गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए क्राउड फंडिंग का यह तरीका अब नजीर बना हुआ है।
[वरिष्ठ समाचार संपादक, उत्तर प्रदेश]