कोरोना की दूसरी लहर के बीच उत्तर प्रदेश के ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे में सुधार की पहल
मुख्यमंत्री योगी ने पिछले दिनों कोविड उपचार की समीक्षा बैठक के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित पीएचसी (प्राइमरी हेल्थ सेंटर) और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की विस्तृत जानकारी तलब की है। मकसद यह देखना है कि कहां दिक्कत है जिसकी वजह से स्वास्थ्य ढांचे की यह प्राथमिक इकाइयां निष्क्रिय पड़ी हैं।
लखनऊ, राजू मिश्र। कोरोना की दूसरी लहर ने उत्तर प्रदेश में जिस तरह नुकसान पहुंचाया उससे तीसरी लहर और उससे भी आगे भविष्य की चुनौतियों से मुकाबले के लिए स्वास्थ्य ढांचे में सुधार की जरूरत अब सर्वाधिक महसूस की जा रही है। इसकी तैयारियां प्रदेश सरकार ने तभी शुरू कर दी थीं, जब दूसरी लहर में उतार शुरू हुआ था। पीडियाटिक आइसीयू का निर्माण, अतिरिक्त बेडों का सृजन और मेडिकल आक्सीजन के उत्पादन की व्यवस्था के बाद प्रदेश सरकार का ध्यान ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे में परिवर्तन पर गया है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों कोविड उपचार की समीक्षा बैठक के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित पीएचसी (प्राइमरी हेल्थ सेंटर) और सीएचसी (कम्युनिटी हेल्थ सेंटर) की विस्तृत जानकारी तलब की है। मकसद यह देखना है कि कहां दिक्कत है, जिसकी वजह से स्वास्थ्य ढांचे की यह प्राथमिक इकाइयां निष्क्रिय पड़ी हैं। कागजों पर देखें तो प्रदेश की पूरी आबादी स्वास्थ्य सेवाओं के दायरे में आ जाती है। नियम है कि सबसे निचले स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर ग्रामीण आबादी को चिकित्सा सुविधा मिलेगी। गंभीर बीमारी की स्थिति में यह केंद्र सीएचसी व जिला अस्पताल के रेफरल सेंटर के रूप में काम करते हैं। इसी तर्ज पर शहरी क्षेत्रों में हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर काम करते हैं। इसी तरह सीएचसी भी एक बड़ी आबादी के केंद्र में बनाया जाता है।
सोनभद्र के म्योरपुर ब्लाक अंतर्गत डोडहर ग्राम पंचायत में बना 20 बेड का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिना संचालन के ही खंडहर में तब्दील हो चुका है। विनय शंकर सिंह
मानक है कि पांच हजार की आबादी में एक उप स्वास्थ्य केंद्र, 30 हजार की आबादी पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 1.2 लाख की आबादी पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना की जाएगी। समस्या यहां भी हल नहीं होती। जिला अस्पताल से इन्हें पड़ोस के निजी अस्पताल और फिर वहां से लखनऊ रेफर कर दिया जाता है। अपवाद होंगे, लेकिन सामान्य दिनों में भी जिला अस्पताल या लखनऊ के अस्पतालों की ओपीडी व जनरल वार्ड में भर्ती मरीजों की संख्या व स्थिति देखकर वास्तविकता को आसानी से समझा जा सकता है। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रति विश्वसनीयता की स्थिति यह है कि लखनऊ के केजीएमयू, लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान या एसजीपीजीआइ जैसे चिकित्सा शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई व शोध के बजाए रुटीन बीमारियों के इलाज का दबाव बढ़ जाता है।
इस पूरे परिदृश्य पर नजर डालिए तो साफ हो जाएगा कि कागजों में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की जो स्थिति दिखती है, उसके प्रति ग्रामीण आबादी में अविश्वसनीयता क्यों है। पीएचसी, सीएचसी में संसाधनों का घोर अभाव है। सीएचसी स्तर पर यदि संसाधन उपलब्ध भी हैं तो इनके इस्तेमाल की विशेषज्ञता वाला स्टाफ उपलब्ध नहीं है। तमाम सामुदायिक केंद्रों में ऐसी मशीनें व जांच उपकरण मिल जाएंगे जिनका कभी इस्तेमाल ही नहीं हुआ होगा। डाक्टर तो कतई ग्रामीण क्षेत्र में जाना ही नहीं चाहते।
ऐसा नहीं कि यह स्थिति एक दिन में आई। ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारने के प्रति किसी सरकार ने अपेक्षित रुचि नहीं ली। खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में संसाधन उपलब्ध कराने और चिकित्सक व पैरा मेडिकल स्टाफ उपलब्ध कराने की दिशा में गंभीर और व्यवहारिक तरीके से काम नहीं हुआ। जिन डाक्टरों को जबरन पीएचसी अथवा सीएचसी भेजा भी जाता है तो वह कुछ दिनों बाद खुद का निजी अस्पताल खड़ाकर इस्तीफा दे देते हैं।
दरअसल, यह सब स्पष्ट और व्यवहारिक नीति के अभाव में है। मेडिकल की पढ़ाई इतनी खर्चीली बना दी गई है कि चिकित्सकों की कमी बनी रहती है। डाक्टरों को ग्रामीण क्षेत्र में अलग से इंसेंटिव की व्यवस्था नहीं रहती। कई बार सीएचसी व पीएचसी में तैनात चिकित्सकों को सुरक्षा की चिंता सताती है। इन सूरते हाल में बदलाव की जरूरत है। फौरी तौर पर यह किया जा सकता है कि जुगाड़ से दफ्तरों में तैनात चिकित्सा स्टाफ को गांव रवाना किया जाए। मुख्यमंत्री ने इसका विवरण तलब किया है, जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि इन्हें जल्द ही ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे की कमान सौंपी जाएगी। साथ ही, जहां एलोपैथी चिकित्सकों की कमी है, वहां आयुष चिकित्सकों को भेजा जाए। डाक्टरों की कमी दूर करने के लिए पैथी के टकराव के बजाए उन्हें सम्मिलित शक्ति के रूप में स्वास्थ्य ढांचे में समाहित किया जाए। सरकार इस दिशा में विचार भी कर रही है। लेकिन, महत्वपूर्ण यह है कि तात्कालिक उपायों के साथ दीर्घकालिक उपायों पर भी ध्यान दिया जाए। मेडिकल की पढ़ाई को कम खर्चीला बनाकर अधिक चिकित्सक तैयार किए जा सकते हैं। इसकी शुरुआत आम बजट में प्रविधान के साथ ही हो सकती है।
[वरिष्ठ समाचार संपादक, उत्तर प्रदेश]