इन ऐतिहासिक दरवाजों पर खड़ा बदहाल वर्तमान, कोई 150 साल पुराना तो कहीं गई थी 2000 जानें
दैनिक जागरण आपको लखनऊ की ऐतिहासिक धरोहरों से रूबरू करा रहा है। इन इमारतों की खत्म होती खूबसूरती अपनी बदहाली की कहानी खुद बयां कर रही है।
लखनऊ [दुर्गा शर्मा]। ऐतिहासिक दरवाजों पर खड़ा बदहाल वर्तमान धरोहरों के भविष्य के लिए सशंकित कर रहा है। अतिक्रमण और गंदगी की चपेट में ये इमारतें अपने स्वर्णिम इतिहास को तलाश रही हैं। धीरे-धीरे खत्म होती इनकी खूबसूरती बदहाली की कहानी कह रही है।
आलमबाग स्थित चंदर नगर गेट रंगाई-पोताई के बाद चमक तो रहा है, पर अतिक्रमण और गंदगी इस खूबसूरती पर बदनुमा दाग बने हैं। किसी समय खूबसूरत बगीचों से घिरे चंदर नगर गेट के पास अब दुकानें सजी हैं। रात में यहां अराजकतत्वों का जमावड़ा भी लगा रहता है। यह रानी के महल का मुख्य द्वार हुआ करता था। नवाब वाजिद अली ने 1847-1856 के दौरान अपनी बेगम आलम आरा के लिए यह शाही द्वार बनवाया था। आलमबाग महल का निर्माण भी इसी के साथ शुरू हुआ था। यह गेट आर्किटेक छोटे खान द्वारा डिजाइन किया गया था। उस समय इसे एक विशाल प्रवेश द्वार के रूप में जाना जाता था। महल और गेट दोनों इमारतें लखौरी ईंटों से बनी हैं। दो मंजिला महल में विशाल हॉल और कमरे शामिल हैं। महल की आंतरिक दीवारों को एक बार फूलों की डिजाइन के साथ सजाया गया था,लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है।
भव्यता खोता सिकंदर बाग गेट
आज जिस बाग को राजकीय वनस्पति उद्यान और बॉटनिकल गार्डन के रूप में जाना जाता है, वह डेढ़ सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है। इसे सिकंदरबाग गेट भी कहा जाता है। उस पुराने बाग के कुछ स्मारक भी मौजूद हैं। इसका पूरब वाला भाग जो अशोक मार्ग के निकालने से मुख्य उद्यान से अलग हो चुका है, इस उपवन का दरवाजा था। इसका मुख्य द्वार अपनी खास शैली के लिए प्रसिद्ध है। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दोनों सिरों पर पैगोडा शैली के चौकोर गुंबद बने हैं, जिसके साथ गोल गुंबद और मछलियों के जोड़ों की सजावट है। इस प्रवेश द्वार के साथ कंगूरेदार परकोटा, टूटी हुई मस्जिद, एक सावनदरा और एक बुर्ज अब केवल शेष रह गया है।
नवाब वाजिद अली शाह ने 1822 में ग्रीष्मावास के तौर पर सिकंदर बाग में हवेली बनवाई। माना जाता है कि नवाब ने इसका नाम अपनी पसंदीदा बेगम सिकंदर महल के नाम पर सिकंदर बाग रखा था। इस उद्यान की आधारशिला नवाब सआदत अली खान ने 1800 में एक शाही बाग के तौर पर रखी थी। यह लगभग 150 एकड़ में फैला है और इसके बीचों बीच एक छोटा सा मण्डप है। इसी मंडप में कला प्रेमी नवाब वाजिद अली शाह कथक की शैली में प्रसिद्ध रासलीला का मंच करते थे और अपनी बेगमों के साथ समय व्यतीत करते थे। आज यह ऐतिहासिक इमारत अपनी भव्यता खोता जा रहा है। जगह-जगह उखड़ा प्लास्टर बदहाली बयां कर रहा है।
बाग में हुई थी 2000 सिपाहियों की मौत
1857 के विद्रोह के दौरान हुई लखनऊ की घेराबंदी के समय ब्रिटिश और औपनिवेशिक सैनिकों से घिरे सैकड़ों भारतीय सिपाहियों ने इस बाग में शरण ली थी। 16 नवंबर 1857 को ब्रिटिश फौजों ने बाग पर चढ़ाई कर लगभग 2000 सिपाहियों को मार डाला था। लड़ाई के दौरान मरे ब्रिटिश सैनिकों को तो एक गहरे गड्ढे में दफना दिया गया लेकिन मृत भारतीय सिपाहियों के शवों को यूं ही सडऩे के लिए छोड़ दिया गया था।
लाखी दरवाजा बदहाल
नवाब वाजिद अली शाह ने 1850 में कैसरबाग की स्थापना करते हुए यहां एक अनोखा खूबसूरत बागीचा भी बनवाया था और इसका नाम दिया कैसरबाग पैलेस। इसके पूर्व और पश्चिम दोनों तरफ में जो दरवाजे बनवाए थे, उसपर उस समय एक-एक लाख रुपये खर्च किए थे। यही वजह है कि इसे लाखी दरवाजा भी कहते हैं। कैसरबाग पैलेस के दोनों दरवाजे यहां की शोभा हुआ करते थे। इस विशालकाय दरवाजे के तीन दर वाले फाटकों पर चार बुर्ज बने हैं और बीच में मार्टिन के मकबरे वाली सीढ़ीदार चौपड़ है।
इसके ऊपरी हिस्से पर सुनहरे गुंबद का छत्र रखा रहता था, जिसपर कभी अवध सल्तनत का झंडा लहराया करता था। मेहराबों पर तीन मछलियां बनी हुई हैं, जो निशाने मुबारक हैं। इन मछलियों के बीच में आसफी गुलदस्ता बना है, जिसे हिंदईरानी बूटा कहते हैं। आज ये बदहाली का शिकार हैं। ट्रैफिक के बोझ तले दबा दरवाजा जर्जर हो चुका है। पूरब वाले दरवाजे के पूरब में पहले शहंशाह मंजिल, सुल्तान मंजिल, फलक सैर मंजिल और चौलक्खी कोठी की शानदार इमारतें थीं। यह फाटक नवाब वाजिद अली शाह के राज्यहरण और नगर विदा की दुखद गाथा का गवाह है। नवाब 13 मार्च 1857 की रात अपने महल से निकले थे। नगर की जनता इसी पूर्वी फाटक पर आंखों में आंसू लिए खड़ी थी। पश्चिम वाले दरवाजे के बाहर कोठी कैसर पसंद और गोलागंज की सड़क थी।