विश्व विरासत दिवस: बेहतरीन नक्काशी का नमूना है छतर मंजिल, यहां सुरंगों का फैला है जाल
सआदत अली खान ने रखी थी इस इमारत की बुनियाद। नवाब नासिरुद्दीन हैदर ने तैयार कराई छतर मंजिल।
लखनऊ [जुनैद अहमद]। राजधानी ऐतिहासिक धरोहरों का शहर है। यहां की इमारतों का इतिहास दुनियां भर में मशहूर है। इनमें छतर मंजिल का नाम पहले आता है। छतर मंजिल अब संवर रही है। वर्षों पहले दबी हुई इस इमारत की एक मंजिल का जीर्णोद्धार हो रहा है। जल्द ही पर्यटक इस मंजिल से छतर मंजिल के इतिहास से रूबरू हो सकेंगे।
शानदार दीवानखाना, तहखाने, सुरंग और मेहराब के लिए मशहूर इस इमारत की नींव नवाब सआदत अली खां ने रखी थी। उन्होंने इसे बेगम छतर कुंवर की याद में बनवाना चाहा था, लेकिन वह काम पूरा नहीं करा पाए। इसका निर्माण नवाब गाजीउद्दीन हैदर ने शुरू करवाया था। उनकी मौत के बाद नवाब नासिरुद्दीन हैदर ने इसका निर्माण पूरा कराया। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में इसका निर्माण मुकम्मल हुआ।
और दिखाई दी एक और मंजिल
वर्ष 2017 में आर्किटेक्चर कॉलेज की डीन वंदना सहगल के नेतृत्व में एक टीम ने इसकी खोदाई कराकर नीचे दबी एक पूरी मंजिल से रूबरू कराया। जिसके बाद उनके दिशा-निर्देश में फरहत बख्श कोठी व छतर मंजिल को संवारने की कवायद की गई। राजकीय निर्माण निगम की ओर से करीब आठ करोड़ के बजट से फरहत बख्श कोठी का पूरा बाहरी हिस्सा संवार लिया गया है। अब अंदर का हिस्सा भी संवारा जा रहा है। इस इमारत का जीर्णोद्धार कर रही निजी कंपनी के नितिन कोहली ने बताया कि छतर मंजिल की दबी हुई मंजिल को जल्द पर्यटकों के लिए शुरू किया जाएगा। इमारत के पीछे काम शुरू हो गया है। नदी की ओर से एक रिटेनिंग वॉल बनाई जा रही है। इसके अलावा छतर मंजिल की दीवार संवारी जा रही है। दीवारों पर पुरानी पद्धति के मसाले का प्लास्टर किया जा रहा है।
इमारत के नीचे भरा रहता था पानी
छतर मंजिल के नीचे एक तहखाना था, जिसका रास्ता गोमती नदी में निकलता था। इस तहखाने में पानी भरा रहता था, और नाव के जरिए गोमती नदी से बाहर शहरों में जाया जाता था। करीब दो साल पहले जब इस इमारत के पीछे खुदाई हुई, तो यह बात सच साबित हुई। तहखाने में गोमती से जुड़ती हुई सुरंग और उसमें लगे बड़े-बड़े लोहे के कुंडे दर्शाते हैं कि नाव के सहारे राजा-महाराजा आया जाया करते थे।
सुरंगों का फैला है जाल
इतिहासकार योगेश प्रवीन बताते हैं कि राजधानी में सुंरगों का जाल फैला हुआ है। नवाबों के समय में यह सुरंगें बनाई गईं। इन सुरंगों से ही उनकी बेगम एक महल से दूसरे महल जाया करती थीं। छतर मंजिल, कोठी दर्शन विलास, बारादरी समेत कई ऐतिहासिक इमारतों तक यहां से सुरंग जाती है। मौजूदा समय में सभी सुरंगों के दरवाजे बंद हैं।
1950 में सीडीआरआइ का बना ऑफिस
आजादी के बाद वर्ष 1950 में फरहत बख्श और छतर मंजिल को केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान को दे दिया गया जिसमें संस्थान का कार्यालय संचालित था। उसके बाद पुरातत्व विभाग के पास आ गया, जिसका जीर्णोद्धार किया जा रहा है।
काला इमामबाड़ा संवरा, मकबरा नहीं
पुराने लखनऊ में स्थित काले इमामबाड़े को हाजी बेगम का इमामबाड़ा भी कहा जाता है। नवाब कासिम अली खां ने यह इमामबाड़ा बनवाया था। इसकी दीवारों पर अलग-अलग नक्काशी से कुरान की आयतें लिखी हुई हैं। यहां पर मजलिस और ताजिया भी दफन होती हैं। इमामबाड़े की देखरेख करने वाले ताहिर अब्बास ने बताया कि कुछ साल पहले जब इसकी मरम्मत हो रही थी, उस समय कुछ ईंटें मिली थीं, जिससे इसकी बुनियाद करीब तीन सौ साल पुरानी जाहिर हुई। क्षेत्र के लोगों ने आपस में मिलकर इसका जीर्णोद्धार कराया। यहां इमामबाड़ा का निर्माण करवाने वाले मिर्जा कासिम साहब की कब्र भी है जो कि अब बिलकुल खंडहर हो चुकी है।