बसपा के भारत बंद से दूरी और कांग्रेस को कोसने से लगा महागठबंधन की उम्मीद को झटका
समाजवादी कुनबे की कलह एक बार फिर उग्र होने व शिवपाल यादव द्वारा समाजवादी सेक्यूलर मोर्चे का गठन करना भी गठबंधन की सियासत में नया मोड़ माना जा रहा है।
लखनऊ (जेएनएन)। कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में जगी गैर भाजपा दलों की एकजुटता की उम्मीद को बसपा के नए पैतरे से झटका लगा। गत सोमवार को पैट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतों के विरोध में कांग्रेस के भारत बंद से बसपा द्वारा दूरी बनाए रखने के बाद मंगलवार को मायावती के बयान से महागठबंधन को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं।
बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा जारी बयान में भाजपा को कांग्रेस की जनविरोधी नीति और योजनाओं को आगे बढ़ाने वाला कहते हुए दोनों दलों को एक थाली के चट्टे-बट्टे कहा। मायावती के आरोपों से कांग्रेस खेमा अधिक बेचैन है। एक प्रदेश पदाधिकारी ने अपना नाम प्रकाशित नहीं करने की शर्त पर बताया कि बसपा या अन्य किसी पार्टी से चुनावी गठबंधन के भरोसे रहना कांग्रेस के लिए जोखिम भरा होगा।
राष्ट्रीय नेतृत्व को गोरखपुर और फूलपुर संसदीय क्षेत्रों के उप चुनाव से सबक लेना चाहिए। सपा बसपा ने योजनाबद्ध तरीके से कांग्रेस को किनारे किया था। इसी तरह कैराना लोकसभा व नूरपुर विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में भी कांग्रेस को बिना मांगे समर्थन देने के लिए मजबूर होना पड़ा। ऐसे में लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को महागठबंधन की आस में हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठना चाहिए।
मुलायम भी करते रहे है गठबंधन का विरोध
गठबंधन को लेकर बसपा प्रमुख मायावती ने सदैव सीटों के सम्मानजनक बंटवारे की शर्त को आगे रखा है। उधर, समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव भी चुनावी गठजोड़ का विरोध करते रहे है। वहीं, समाजवादी कुनबे की कलह एक बार फिर उग्र होने व शिवपाल यादव द्वारा समाजवादी सेक्यूलर मोर्चे का गठन करना भी गठबंधन की सियासत में नया मोड़ माना जा रहा है। शिवपाल समर्थकों ने भी बसपा की तरह भारत बंद से दूरी बनाए रखी। सूत्रों का कहना है कि शिवपाल की सक्रियता और छोटे दलों से मिलकर नया गठबंधन बनाने की घोषणा भी महागठबंधन में रोड़ा साबित हो सकती है।
बसपा को दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर भरोसा
बसपा नेतृत्व दलित- मुस्लिम समीकरण को अपने लिए अधिक मुफीद मानता है। उनका मानना है कि गठबंधन की स्थिति में बसपा का दलित वोटबैंक सहयोगी दलों के उम्मीदवारों को जरूर ट्रांसफर हो जाएगा परंतु उनकी वोटों का स्थानांतरण आसान न होगा। अलबत्ता भाजपा को हराने के लिए मुस्लिमों का एकतरफा रुझान बसपा की ओर होना संभव है। दलित मुस्लिम गठबंधन को 2019 में मजबूती मिलती है तो वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा को इसका लाभ मिलेगा।