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चिकित्सा उपकरणों पर आत्मनिर्भरता और कोरोनाकाल में ही वैक्सीन बना लेना गौरव की बात

लखनऊ के केजीएमयू रेसिपेटरी मेडिसिन विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. सूर्यकांत ने बताया कि जिस तेजी से चिकित्सा के क्षेत्र में उन्नति हुई है वह गर्व की अनुभूति कराती है। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष पर पढ़िए इन उपलब्धियों के बारे में...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 31 Aug 2021 02:37 PM (IST)Updated: Tue, 31 Aug 2021 02:37 PM (IST)
चिकित्सा उपकरणों पर आत्मनिर्भरता और कोरोनाकाल में ही वैक्सीन बना लेना गौरव की बात
स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाएं और नए शोध संस्थानों की स्थापना गौरव की बात है।

लखनऊ, जेएनएन। जब आजादी मिली थी, तब भारत एक संसाधनविहीन राष्ट्र था और हर मोर्चे पर सिर्फ एक ही बात थी कि हमें प्रगति के पथ पर तेजी से पांव पसारने हैं। चिकित्सा, शिक्षा, रक्षा और तकनीक आदि कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसके लिए नए राष्ट्र के निर्माण का तानाबाना न तैयार करना हो। इनमें जो सबसे बड़ी समस्या थी, वह थी हमारी चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाएं।

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आजादी के समय देश में माडर्न मेडिसिन के सात हजार चार सौ हास्पिटल व डिस्पेंसरीज में एक लाख 13 हजार बेड थे, जो उस समय की जनसंख्या का 0.24 प्रति एक हजार व्यक्ति पर था। इसमें 47,000 चिकित्सक, सात हजार नर्सें थीं और मेडिकल कालेज सिर्फ 19 थे। ये सभी मेडिकल कालेज ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित किए गए थे। इनमें देश का पहला मेडिकल कालेज कलकत्ता (अब कोलकाता) 1835 में दूसरा मद्रास, तीसरा लाहौर व चौथा किंग जार्ज मेडिकल कालेज लखनऊ में खोला गया था। यह वह समय था, जब केवल एक हजार एमबीबीएस के छात्रों को पढ़ने के लिए प्रवेश दिया जाता था, जो आवश्यकता के हिसाब से नाकाफी था।

मिलीं कई सौगातें: आजादी के बाद चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के विकास के लिए देश की पंचवर्षीय योजनाओं में विभिन्न योजनाओं को शामिल किया गया। इसके अंतर्गत तीन स्तरीय सरकारी अस्पतालों का निर्माण तथा नए मेडिकल कालेज खोले गए। इसी क्रम में दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान 1956 में तथा चंडीगढ़ में 1962 में पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीटयूट आफ मेडिकल एजूकेशन एंड रिसर्च की स्थापना की गई, जो आजाद भारत के लिए चिकित्सा के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धि थी।

संवरे उच्च शिक्षा के दिन: स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में प्रगति की गति जारी रही और वर्ष 2004 में भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्रीत्व काल में छ: नए आयुर्विज्ञान संस्थानों की नींव रखी गई, जो आज अपनी सेवाओं के प्रति समर्पित हैं। इसके बाद एक और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की नींव रायबरेली में रखी गई। इससे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थानों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। वर्ष 2014 से अब तक का समय चिकित्सा जगत के लिए स्वर्णिम काल रहा। इस दौरान 22 नए चिकित्सा संस्थान प्रारंभ हुए। भारत जैसे विकासशील देश के लिए उच्च चिकित्सा के क्षेत्र में यह एक बड़ी छलांग है।

सिलसिला जारी है: वर्ष 2014 तक देश में कुल चार सौ चालीस मेडिकल कालेज थे, लेकिन आज इन मेडिकल कालेजों व चिकित्सा संस्थानों की संख्या बढ़कर पांच सौ बासठ हो गई, जो अच्छा संकेत है। चिकित्सा के क्षेत्र में हो रही तरक्की की सबसे अच्छी बात यह है कि स्वास्थ्य से जुड़े हर क्षेत्र के लिए संस्थानों की स्थापना का क्रम जारी है और इसी क्रम में आज देश में पांच सौ छाछठ डेंटल कालेज हैं। 2014 तक देश में प्रतिवर्ष एमबीबीएस छात्रों की संख्या 50,000 तथा परास्नातक चिकित्सा की पढ़ाई के लिए छात्रों की संख्या 25,000 थी, जो वर्तमान में क्रमश: 84,649 एवं 42,720 हो गई है, जो चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व उपलब्धि है। किसी भी देश की प्रगति सिर्फ सरकार पर निर्भर नहीं करती है, इसमें हर किसी की भूमिका होती है। स्वास्थ्य सेवाओं में हो रहे सरकारी प्रयासों के साथ प्राइवेट सेक्टर में भी बड़ा काम हो रहा है। केंद्र सरकार की स्वास्थ्य योजनाओं के अंतर्गत आज 37 शहरों में 288 एलोपैथिक एवं 85 आयुष डिस्पेंसरीज स्थापित हो चुकी हैं। आज देश में कुल ब्लड बैंकों की संख्या तीन हजार एक सौ आठ है, वहीं चार सौ उन्हत्तर आई बैंक हैं।

आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते कदम: देश हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन रहा है तो फिर चिकित्सा का क्षेत्र कैसे छूट जाएगा। भारत ने बीते समय कोरोना की लड़ाई में आने वाली चुनौतियों का न सिर्फ मुकाबला किया, बल्कि चिकित्सा तंत्र को मजबूत भी किया। कुछ वर्षों पूर्व तक भारत में वायरस संबंधी एक प्रयोगशाला, नेशलन इंस्टीट्यूट आफ पुणे थी, लेकिन आज इनकी संख्या बढ़कर दो हजार से ज्यादा हो गई है। भारत में कोरोना संक्रमित पहला रोगी जब चिह्नित हुआ था तो उसके पूर्व तक पर्याप्त मात्रा में पीपीई किट और एन-95 मास्क आदि हमारे पास नहीं थे, लेकिन आज भारत इनका निर्यात करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया है।

यह नया भारत है: देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा और मनाना भी चाहिए।

जब देश आजाद हुआ था तो चिकित्सा के मामले में हर स्तर पर हम बहुत पीछे थे। चिकित्सा में प्रयोग आने वाले उपकरणों के लिए हमें दूसरे देशों का मुंह ताकना पड़ता था, लेकिन आज भारत में तीन हजार से अधिक मेडिकल उपकरणों का निर्माण करने वाली कंपनियां हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक टीबी की जांच के लिए सीबी नेट मशीन आयात की जाती थी, पर अब टूनेट के नाम से विशुद्ध भारतीय मशीन हमारे देश के विज्ञानियों ने विकसित की है। आज ऐसी कोई आधुनिक शल्य चिकित्सा नहीं है, जो भारत में न हो रही हो या जिसके लिए लगातार शोध कार्य न हो रहे हों। आम आदमी को अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल सके, इसके लिए आयुष्मान भारत जैसी ढेरों चिकित्सा योजनाएं उपलब्ध हैं, जो आजादी के 75 सालों में हुई तरक्की की गवाही देती हैं।

गढ़ा कीर्तिमान: कोविड-19 के संक्रमण ने दुनिया में विकास के शिखर पर खड़े देशों की नींद उड़ा दी थी। ऐसे में भारत का चिंतित होना लाजिमी था, लेकिन देश के चिकित्सा विज्ञानियों ने वो कर दिखाया, जो इतिहास बन गया। भारत ने पहली बार वैक्सीन के उत्पादन के क्षेत्र में बहुत बड़ी उपलब्धि कोरोनाकाल में ही हासिल की। कोरोनाकाल में कोरोना की दो वैक्सीन, कोविशील्ड व कोवैक्सीन विकसित की गईं और हाल ही में तीसरी भारत में ही निर्मित वैक्सीन जायकोव-डी को भी स्वीकृति प्रदान की गई है, जिसके लिए हमें देश पर नाज होना चाहिए। जहां कोविशील्ड और कोवैक्सीन अभी 18 साल के ऊपर के लिए अनुमन्य हैं, वहीं जायकोव-डी 12 वर्ष से ऊपर के लोगों के लिए अनुमन्य हैं।

दुनिया ने सराहा: भारत चिकित्सा की रैंकिंग में दुनिया में एक सौ पैंतालीसवें स्थान पर है। आबादी व चिकित्सा संसाधनों की आवश्यकता के हिसाब से हम अभी बहुत पीछे हैं, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि देश विकास की पटरी पर चल रहा है और जो भी उपलब्धियां मिलीं, वे नाकाफी नहीं हैं। कोरोना महामारी के संकट के समय विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी यह कहना पड़ा कि कोरोना संक्रमण को रोकने के मामले भारत का प्रयास सराहनीय है।


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