लखनऊः निशक्तों को दे रहे सशक्त बनने का मंत्र
डॉ. अमिताभ मल्होत्रा ने अपनी कमजोरी को हथियार बनाया और खुद नजीर बन गए। आज वह निशक्तों को सशक्त बनाने में जुटे हैं।
'इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है/ नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है/ एक चिंगारी कहीं से ढूंढ़ लाओ दोस्तों/ इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।'
कवि दुष्यंत की इन पंक्तियों के भाव परखना हों तो अमिताभ मल्होत्रा से बेहतर उदाहरण मिलना मुश्किल है। एक संपन्न परिवार में जन्मे लेकिन मस्तिष्क पक्षाघात के कारण शारीरिक क्षमता खोने के बाद वह चिंगारी ही थी, जिसने न केवल उन्हें जिंदगी से लड़ने के काबिल बनाया बल्कि अब वह अपने जैसे दूसरे दिव्यांगजनों में स्पार्क पैदा करने की मुहिम को आगे बढ़े रहे हैं। उन्होंने साबित कर दिखाया कि वह कोई सामान्य व्यक्ति हो या नि:शक्त, इच्छाशक्ति हो तो उसे सशक्त बनने से कोई बाधा रोक नहीं सकती। डॉ. अमिताभ मल्होत्रा ने अपनी कमजोरी को हथियार बनाया और खुद नजीर बन गए। आज वह निशक्तों को सशक्त बनाने में जुटे हैं।
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रायबरेली में जन्मे डॉ. अमिताभ के पिता डाक्टर थे। परिवार में सब कुछ अच्छा चल रहा था, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन अचानक ब्रेन स्ट्रोक्स (प्रमस्तिष्क पक्षाघात) के चलते अमिताभ के बालपन की खुशियां छिन गईं। उलाहना और हेय दृष्टि उन्हें कचोटती थी, पर हिम्मत नहीं हारी। विपरीत परिस्थितियों में शिक्षा का दामन थामे रखा और शिक्षा ने ही आज इस काबिल बनाया कि औरों के मददगार बन गए हैं। हालांकि डॉ. अमिताभ के लिए यह डगर आसान नहीं थी। दोनों हाथों में कंपन के बावजूद पढ़ाई जारी रखी। ब्रेन सर्जरी भी हुई। लेफ्ट बॉडी पार्ट में पैरालिसिस हो गया। हाथों में कंपन के कारण पेपर लिखने के लिए एक व्यक्ति चाहिए होता था। आठवीं की परीक्षा थी। ऐन वक्त पर पेपर में लिखने वाले साथी का सहयोग नहीं मिला। पिता जी की आंखों में आंसू देखे। स्वयं लिखे और पास हुए। हाई स्कूल की परीक्षा में भी यही दिक्कत हुई पर उस बाधा को भी पार किया। वाणिज्य और गणित विषय के साथ आगे की पढ़ाई की। रोजाना महानगर से कैंट तक का सफर तय करते थे। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई से सोशल वर्क में एमए किया।
2016 में 'ग्रामीण परिवेश में दिव्यांगजन का समावेशीकरण' विषय के साथ पीएचडी पूरी की। इलाहाबाद में तीन महीने विकलांग केंद्र में काम किया। फिर नवंबर 1987 से दिसंबर 1994 तक जमशेदपुर में रहकर शोध कार्य किया और लखनऊ आकर सहभागी शिक्षण केंद्र में काम किया। 1996 में स्पार्क इंडिया को स्थापित किया। इसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न दिव्यांगजन को सशक्त बनाना है, खासकर उन्हें जो प्रमस्तिष्क पक्षाघात से प्रभावित हैं।
मैंने पिता जी की अपेक्षाओं को महसूस किया और अपनी कमजोरी को हथियार बनाया। मेहनत और लगन से उम्मीदों को पूरा किया। पिछले 22 सालों से दिव्यांगजन की शिक्षा के लिए जुटा हूं। ज्योति किरण स्कूल को अभी स्वयं की बिल्डिंग की दरकार है। फिलहाल, चाइल्ड गाइडेंस क्लीनिक शुरू करने का विचार है। इसमें दिव्यांग और खास बच्चों के साथ सामान्य बच्चे और उनके अभिभावक हर किसी को शामिल करेंगे।
- डॉ. अमिताभ मल्होत्रा
आज मैं आत्मनिर्भर हूं
खदरा निवासी निगार सुल्ताना उन तमाम बच्चों में से एक हैं, जिन्हें डॉ. अमिताभ ने शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाया। निगार ने बताया कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रही। पढऩे की इच्छा होती थी पर संसाधन कदम थाम देते थे। स्पार्क इंडिया के सामुदायिक कार्यक्रम के तहत शिक्षा हासिल हुई। कैलिपर भी मिले। कौशल विकास का प्रशिक्षण भी मिला। आज मैं आत्मनिर्भर हूं।
डगर कठिन पर नामुमकिन नहीं
डॉ. अमिताभ ने 2003 में ज्योति किरण स्कूल शुरू किया। शुरुआत में यहां प्रमस्तिष्क पक्षाघात के बच्चे ही पढ़ते थे। अब अन्य दिव्यांगता प्रभावित बच्चों को भी लेना शुरू कर दिया है। शिक्षा के साथ-साथ फीजियोथेरेपी, आक्यूपेशनल थेरेपी समेत अन्य तरीकों से दिव्यांग और खास बच्चों के पुनर्वासन की दिशा में काम कर रहे हैं। वहीं समावेशी शिक्षा पर भी काम कर रहे हैं। आवासीय ट्रेनिंग भी करते हैं। दो साल के अंदर छह बैच में 180 शारीरिक विकलांग जन को ट्रेनिंग दी। 133 को नौकरी दिलाई। वह मानते हैं कि संस्था और सरकार को मिलकर काम करना होगा, तभी दिव्यांगजन सशक्तिकरण संभव है।
पग-पग पर किया चुनौतियों का सामना
डॉ. अमिताभ के कॅरियर में पग-पग पर चुनौतियां सामने थीं। अशक्तता के चलते पढ़ाई आसान नहीं थी। फिर भी उस बाधा को पार किया। वह खुद प्रमस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त हैं। पर, अपने को कमजोर नहीं बनाया। स्पार्क इंडिया संस्था की स्थापना व 2003 में दिव्यांगों के लिए ज्योति किरण स्कूल खोलने में तमाम अड़चनें आईं। उसे दूर किया। अब दिव्यांगों की शिक्षा के साथ ही कौशल विकास की व्यवस्था भी करते हैं। वर्तमान में ज्योति किरण स्कूल में 60 दिव्यांग और स्पेशल चाइल्ड अध्ययनरत हैं। हालांकि अभी स्कूल के लिए सुगम भवन चुनौती के रूप में सामने है।
ये हो तो बने बात
- शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों का पूर्णतया पालन हो।
- दिव्यांगजन के जीवकोपार्जन के लिए और प्रोग्राम चलाने होंगे।
- दिव्यांगजन के लिए बाधा रहित भवन हों।
- राइट्स ऑफ परसंस विद डिसेबिलिटी एक्ट-2016 का पालन किया जाना चाहिए।
- ट्रेनिंग प्रोग्राम खासकर स्किल डवलपमेंट प्रोग्राम ज्यादा से ज्यादा होने चाहिए।
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