गरीब बच्चों के लिए समर्पित है लखनऊ का बाल सदन, धर्मदत्त दे रहे बच्चों को शिक्षा
देश में ऐसे सत्पुरुषों की कमी नहीं रही जो स्वार्थ के बजाय परमार्थ को अपना जीवन धर्म मानते रहे हों।
चारबाग स्टेशन पर प्रतिदिन दर्जनों बच्चे घरों से भागकर या मानव तस्करों के हाथ पड़कर पहुंचते हैं। कुछ भीख मांगना शुरू कर देते हैं तो कुछ होटलों-ढाबों में बाल मजदूरों के रूप में खपते हैं। इन बच्चों को इस नियति से बचाने के लिए मोतीनगर स्थित श्रीमद दयानंद बाल सदन सक्रिय है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के करीब 150 बच्चों को यहां औपचारिक और रोजगारपरक शिक्षा दी जा रही है। इस पुनीत कार्य को पूरा कराने में जुटे हैं बुजुर्ग धर्मदत्त जी।
जीवन के करीब 90 बसंत देख चुके धर्मदत्त बालसदन के मुखिया हैं। वह पिछले कई वर्षों से बाल सदन की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। वह बताते हैं कि यहां रहने वाले सभी बच्चे ग्रामीण परिवेश के हैं। ये ऐसे बच्चे हैं, जिनके या तो मां-बाप नहीं हैं या फिर वे इतने गरीब हैं कि इनके उचित पालन पोषण की जिम्मेदारी नहीं उठा पाते।
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ग्राम प्रधान, स्थानीय समाज सेवी या जन प्रतिनिधि इन्हें बाल सदन भेज देते हैं और यहां उनके खान-पान, रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा से लेकर रोजगार तक की निशुल्क व्यवस्था की जाती है। अनुशासित जीवन के संस्कार दिये जाते हैं। औपचारिक शिक्षा के साथ ही इन्हें वैदिक शिक्षा और आर्य समाज के प्रचार के काम से भी जोड़ा जाता है।
प्रशिक्षण प्राप्त बड़े बच्चे आर्य समाजी पद्धति से किये जाने वाले संस्कारों, हवन और अन्य कार्यों के लिए बाहर जाते हैं। इससे उन्हें दक्षिणा के रूप में आय भी प्राप्त होती है। धीरे-धीरे वह आत्मनिर्भर होकर सदन से विदाई लेते हैं, लेकिन बाल सदन के वृहद परिवार का हिस्सा बने रहते हैं।
अनूठे गुरुकुल का आधार हैं
बालसदन अपने प्रकार का अनूठा गुरुकुल है और उससे भी अनूठी है यहां की दिनचर्या। वैदिक रीति से बालसदन में बने हवन कुंड में प्रात: छह बजे हवन और मंत्रोच्चार के साथ दिन शुरू होता है। इसके बाद सात बजे नियमित योगाभ्यास होता है। साढ़े आठ बजे नाश्ते के बाद दस बजे से संस्कृत शिक्षा की कक्षा लगती है।
पूर्वाह्न 11 बजे से शाम चार बजे तक औपचारिक शिक्षा की नियमित कक्षाएं लगती हैं। इसी बीच दोपहर एक बजे से दो बजे तक मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था होती है। शाम चार बजे से साढ़े पांच बजे तक बच्चों के खेलने का समय होता है और फिर संध्या का आयोजन। यह संपूर्ण दिनचर्या आठ बजे से नौ बजे के बीच रात्रि भोजन के साथ समाप्त होती है।
संघर्ष का सफरनामा
देश में ऐसे सत्पुरुषों की कमी नहीं रही जो स्वार्थ के बजाय परमार्थ को अपना जीवन धर्म मानते रहे हों। 1992 के आसपास उत्तर प्रदेश इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में ज्वाइंट सेक्रेटरी के पद से सेवानिवृत्त हुए धर्मदत्तजी ने यहां आना शुरू किया था। वह बच्चों के लिए भोजन आदि लेकर आया करते थे। एक दिन बच्चों ने आग्रह किया कि धर्मदत्तजी उन्हें पढ़ा दिया करें। उन्होंने अनुरोध स्वीकार कर लिया।
बालसदन में लगाया फंड और बचत का बड़ा हिस्सा
धर्मदत्तजी सुबह टहलने निकलते तो बाल सदन आ जाते। बच्चों ने सुबह पांच बजे पढ़ने की बात कही, लेकिन जब वह पहले दिन पहुंचे तो बच्चे सो रहे थे। इस पर उन्होंने आग्रह किया कि वह जितने बजे सोकर उठें, बता दें। पढ़ाने के लिए वह तभी आ जाया करेंगे। ऐसा ही हुआ और शिक्षा का सिलसिला चल निकला।
रिटायर होने के बाद धर्मदत्तजी बाल सदन की आर्थिक सहायता भी करते थे। यह सेवा देख लोगों ने उन्हें इस सदन का प्रबंधक नियुक्त कर दिया और बाद में मंत्री भी बना दिया। धर्मदत्तजी ने अपने फंड और बचत का बड़ा हिस्सा सदन में कमरों के निर्माण व विद्यालय के लिए लगाना शुरू कर दिया। उनके इस प्रयास को देख कई और लोग भी सहायता लेकर आने लगे और बाल सदन का कायाकल्प शुरू हो गया। धीरे-धीरे प्रयास रंग लाए और आज बाल सदन शहर का गौरव बनकर खड़ा है।
परिवार भी कर रहा सहयोग
अब बाल सदन एक वृहद परिवार है। नब्बे वर्ष की आयु पूरी कर रहे धर्मदत्तजी व उनका पूरा परिवार जिस सेवा भावना से बालसदन संचालित करता है, वह अनुकरणीय है। उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती हैं उनकी पत्नी ओमेश्वरी देवी। बेटे-बेटी और उनका परिवार देश-विदेश में उच्च पदों पर कार्यरत हैं लेकिन जब भी इस परिवार के अन्य सदस्यों को समय मिलता है, वे भी जुट जाते हैं बच्चों और सदन की सेवा में।
'पांच-छह वर्ष की उम्र से जुड़ा हूं'
मेरे परिवार में मेरे एक भाई के सिवा और कोई नहीं था। पांच-छह वर्ष की अवस्था में ही बाल सदन आ गया। यहीं औपचारिक और आर्यसमाजी संस्कारों की शिक्षा मिली। इस समय शास्त्री (स्नातक) की पढ़ाई कर रहा हूं, साथ ही पुरोहिताई का कार्य भी करता हूं। करीब दस हजार मासिक आय हो जाती है। मेरे जैसे और भी लोग हैं जो आज धर्मदत्तजी के मार्गदर्शन से अपना सुखी जीवन यापन कर रहे हैं।
- मोहित कुमार
ये हो तो बने बात
- समाज के काम समाज को ही करने होते हैं। अन्य संपन्न लोग भी कमजोर तबके को सक्षम बनाने को आगे आएं।
- बच्चों का भटकाव बचपन में ही रोक लिया जाए तो वह अपराध की ओर नहीं भागेंगे।
- सरकारी तंत्र को भी निराश्रित बच्चों के लिए ऐसे गुरुकुल चलाने चाहिए जहां औपचारिक और सांसारिक शिक्षा हासिल कर सकें।
-आश्रम पद्धति स्कूलों का संचालन सरकारी कर्मचारियों के बजाय सेवाभावी लोगों को सौंपा जाए।
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