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Kargil Vijay Diwas: कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे लखनऊ के कई जांबाज, शौर्य से जगमग देश प्रेम की ज्योति

कैप्टन मनोज पांडेय राइफलमैन सुनील जंग लांसनायक केवलानंद द्विवेदी कैप्टन आदित्य मिश्र और मेजर रीतेश शर्मा जैसे जांबाजों के पराक्रम के आगे दुश्मन के नापाक मंसूबे ध्वस्त हो गए थे। मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर विजय पताका फहराई।

By Rafiya NazEdited By: Published: Mon, 26 Jul 2021 09:46 AM (IST)Updated: Mon, 26 Jul 2021 04:08 PM (IST)
Kargil Vijay Diwas: कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे लखनऊ के कई जांबाज, शौर्य से जगमग देश प्रेम की ज्योति
कारगिल युद्ध में कैप्टन मनोज पांडेय, सुनील जंग, केवलानंद द्विवेदी जैसे शूरवीरों ने अपने प्राण किए थे न्योछावर।

लखनऊ, [निशांत यादव]। सन 1999 में हुए कारगिल युद्ध में शहर के कई जांबाजों ने मोर्चा लिया था। कैप्टन मनोज पांडेय, राइफलमैन सुनील जंग, लांसनायक केवलानंद द्विवेदी, कैप्टन आदित्य मिश्र और मेजर रीतेश शर्मा जैसे जांबाजों के पराक्रम के आगे दुश्मन के नापाक मंसूबे ध्वस्त हो गए थे। इन रणबांकुरों ने मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर विजय पताका फहराई। कारगिल युद्ध के इन वीरों की स्मृतियां आज भी कई जगह संजोकर रखी गई हैं। शहीद स्मारक के सामने कारगिल वाटिका में लगी उनकी प्रतिमा और वीरगाथा का वर्णन लोगों के दिलों में देशभक्ति की लौ जगा रहे हैं। सोमवार को कारगिल युद्ध में विजय दिवस के 22 वर्ष पूर्ण हो जाएंगे। इस मौके पर इन जांबाजों को नमन किया जाएगा।

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अंतिम सांस तक हाथ से नहीं छूटी बंदूक: छावनी के तोपखाना बाजार के रहने वाले सुनील जंग 11 गोरखा राइफल्स में बिना घरवालों को बताए 16 वर्ष की आयु में भर्ती हो गए थे। पिता नर नारायण जंग भी सेना से सेवानिवृत्त हुए थे। मां बीना महत बताती हैं कि कारगिल युद्ध से कुछ दिन पहले ही सुनील घर आया था। अचानक उसकी यूनिट से बुलावा आ गया। जाते समय सुनील ने कहा था कि मां अगली बार लंबी छुट्टी लेकर आऊंगा। घर से जाने के बाद राइफलमैन सुनील जंग 10 मई 1999 को 1/11 गोरखा राइफल्स की एक टुकड़ी के साथ कारगिल सेक्टर पहुंचे। तीन दिनों तक सुनील जंग ने दुश्मनों से मोर्चा लिया। 15 मई को एक गोलीबारी में कुछ गोलियां उनके सीने में जा लगीं। अंतिम सांस तक सुनील के हाथ से बंदूक नहीं छूटी।

बीमार पत्नी को छोड़ संभाला मोर्चा: लांसनायक केवलानंद द्विवेदी की पत्नी कमला द्विवेदी की तबीयत खराब थी। वह पत्नी को देखने के लिए 26 मार्च 1999 को अपने घर आए थे। इस बीच उनकी यूनिट से एक तार आया, जिसमें कहा गया कि कारगिल में दुश्मन से मोर्चा लेने के लिए तुरंत जम्मू-कश्मीर में अपनी यूनिट को रिपोर्ट करें। लांसनायक केवलानंद द्विवेदी जम्मू पहुंचकर 15 कुमाऊं रेजीमेंट की टुकड़ी में शामिल हुए। कारगिल पहुंचकर उन्होंने आखिरी बार 30 मई 1999 की सुबह अपनी पत्नी को फोन किया। कहा कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए कारगिल के अग्रिम मोर्चे पर जा रहा हूं। तुम बच्चों और परिवार का ख्याल रखना। छह जून की रात केवलानंद द्विवेदी बलिदानी हो गए। यह सदमा प}ी और उनकी मां बर्दाश्त न कर सकीं। कमला का उपचार सैन्य अस्पताल में कराया गया, जबकि मां ने भी कुछ दिन बाद दम तोड़ दिया। वीरता के लिए उनको वीरचक्र (मरणोपरांत) प्रदान किया गया।

खालूबार जीतकर राह की आसान: यूपी सैनिक स्कूल के छात्र रहे कैप्टन मनोज पांडेय को छह जून 1997 को आइएमए के प्रशिक्षण के बाद सेना में अधिकारी के रूप में कमीशंड प्राप्त हुआ था। उनकी पहली ही तैनाती आतंक प्रभावित क्षेत्र जम्मू के नौशेरा में हुई थी, जबकि दूसरी तैनाती सियाचिन में 18 हजार फीट की ऊंचाई पर की गई। वहां से कैप्टन मनोज की पलटन को पुणो भेजा गया। रसद और हथियार जा चुके थे। उनकी पलटन वापस हो रही थी कि अचानक बताया गया कि कारगिल में दुश्मन ने घुसपैठ कर ली है। अपनी अलफा कंपनी के साथ कैप्टन मनोज खालूबार में ऊंची चोटी पर पाकिस्तानी कब्जे से बंकर को मुक्त कराते हुए आगे बढ़े। तीन बकरों को ध्वस्त कर वह चौथे बंकर की ओर बढ़े, लेकिन दुश्मन की गोली उनको लगी। अंतिम सांस लेने तक उन्होंने चौथा बंकर भी दुश्मन से मुक्त कराया। उनको वीरता का सर्वोच्च पदक परमवीर चक्र (मरणोपरांत) प्रदान किया गया।

तार जोड़कर बनाया संपर्क: कैप्टन आदित्य मिश्र का जन्म फातिमा अस्पताल में हुआ था। उनके पिता ले. जनरल जीएस मिश्र की कई जगह तैनाती हुई। इसलिए कैप्टन आदित्य मिश्र देश के कई शहरों में पढ़ाई के बाद आठ जून 1996 को भारतीय सेना में सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में अधिकारी बने। सिग्नल कोर के अधिकारी कैप्टन आदित्य मिश्र 19 जून 1999 को अपनी यूनिट लद्दाख स्काउट के साथ बटालिक सेक्टर पहुंचे। उन्होंने प्वाइंट 5203 को दुश्मनों के कब्जे से मुक्त कराया। टीम वापस अपने बेस पर पहुंची, लेकिन कब्जे में लिए गए बंकर में संचार लाइन का नेटवर्क बिछाना जरूरी था। वह दोबारा संचार नेटवर्क बिछाने गए। वहां उनका दुश्मनों से आमना-सामना हुआ, जहां दुश्मन से मोर्चा लेते हुए वह शहीद हुए।

शहर करेगा शहीदों को नमन: शहीद स्मारक के सामने कारगिल स्मृति वाटिका में कारगिल दिवस मनाया जाएगा। यहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ शहीदों को नमन करेंगे। मध्य कमान मुख्यालय की ओर से छावनी स्थित युद्ध स्मारक स्मृतिका पर बलिदानियों को पुष्पांजलि अर्पित की जाएगी।

मश्कोह घाटी को दुश्मन से मुक्त कराया: लामार्टीनियर कालेज से पढ़ाई के बाद मेजर रीतेश शर्मा ने बीएचयू में दाखिला लिया। उनका चयन कंबाइंड डिफेंस सर्विसेज से हुआ। नौ दिसंबर 1995 को मेजर रीतेश शर्मा पासिंग आउट परेड के बाद सेना में अफसर बने। मई 1999 में आर्मी ट्रेनिंग कालेज महू में प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद वह 15 दिनों की छुट्टी पर अपने घर लखनऊ आए थे। इस बीच सूचना मिली कि कारगिल क्षेत्र में चार जाट की पेट्रोलिंग टुकड़ी का कुछ पता नहीं चल रहा है। वह वापस अपनी यूनिट 17 जाट रेजीमेंट पहुंचे। मेजर रीतेश ने अपनी टुकड़ी के साथ प्वाइंट 4875 पर तिरंगा लहराया। छह व सात जुलाई की रात मश्कोह घाटी को फतह करते समय मेजर रीतेश घायल हो गए। सीओ के आदेश पर बेस में वापस आने से पहले कमान कैप्टन अनुज नैयर को सौंप दी। उनकी 17 जाट रेजीमेंट ने मश्कोह घाटी को दुश्मन के कब्जे से मुक्त कराया, जिस पर यूनिट को मश्कोह सेवियर का खिताब दिया गया। इसके बाद घायल रीतेश शर्मा स्वस्थ हुए। जहां 25 सितंबर 1999 को कुपवाड़ा में नियंत्रण रेखा पर आतंकियों से मुठभेड़ में वह घायल हो गए। छह अक्टूबर 1999 को नार्दर्न कमांड अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।


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