कम वजन वाले 39 फीसद बच्चों के फेफड़े मिले कमजोर, मानसिक विकास में भी बाधा; इन बातों को रखें ध्यान
केजीएमयू में 15 सौ ग्राम तक के भर्ती बच्चों के अध्ययन में मिली जानकारी। कम समय में यदि प्रसव पीड़ा के लक्षण दिखें तो गर्भवती को प्राइमरी हेल्थ केयर पर ही स्टेरॉयड की डोज देकर हायर सेंटर रेफर करें।
लखनऊ [संदीप पांडेय]। समय पूर्व प्रसव एवं कम वजन वाले शिशु विकार ग्रस्त हो रहे हैं। पैदा होते ही उनके फेफड़े कमजोर पाए जा रहे हैं। साथ ही आंत और मानसिक विकास में भी गड़बड़ी मिल रही है। केजीएमयू के एनआइसीयू में भर्ती किए गए 15 सौ ग्राम तक के वजन वाले बच्चों पर हुए अध्ययन में ये बात सामने आई है। लिहाजा, कमजोर अंगों वाले नौनिहालों के स्वास्थ्य को लेकर अलर्ट रहना होगा।
केजीएमयू की बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. शालिनी त्रिपाठी व डॉ. रमशा ने 'न्यूरो डेवलपमेंटल आउट कम ऑफ वेरी लो बर्थ वेट नियोनेट' पर शोध किया। इसके लिए नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट (एनआइसीयू) में भर्ती हुए 15 सौ ग्राम तक के बच्चों को चुना गया। सितंबर 19 से तीन माह तक ऐसे 139 बच्चे एनआइसीयू में पांच सौ ग्राम या उससे कम के भर्ती हुए। इनमें से कई की मौत हो गई। कुछ को अभिभावक अपनी मर्जी से लेकर दूसरी जगह चले गए। यहां 70 बच्चों का संपूर्ण इलाज चला। इन बच्चों की छह माह तक निगरानी की गई। समय-समय पर ओपीडी में आने पर पैथोलॉजी व रेडियोलॉजी की जांचें की गईं। इस दौरान कुल 23 फीसद बच्चों का शारीरिक विकास असामान्य पाया गया। 39 फीसद बच्चे रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम (आरडीएस) से पीडि़त पाए गए। 14 फीसद बच्चों की आंतों में गड़बड़ी पाई गई। इनमें नेक्रोटाइजिंग इंटीरो कोलाइटिस (एनइसी) की समस्या मिली। साथ ही 17 फीसद बच्चों में इंट्रा वेट्रिकुलर हेमरेज (आइवीएच) पाया गया। एक वर्ष तक चली स्टडी को अब जनरल में प्रकाशन के लिए भेजा जाएगा।
कम समय के प्रसव में पहले दें स्टेरॉयड
डॉ. शालिनी त्रिपाठी के मुताबिक यह समस्या कम वजन के साथ-साथ 28 सप्ताह में जन्मे बच्चों में पाई गई है। ऐसे में प्रसव को तय समय में कराने का प्रयास हो, वहीं कम समय में यदि प्रसव पीड़ा के लक्षण दिखें तो गर्भवती को प्राइमरी हेल्थ केयर पर ही स्टेरॉयड की डोज देकर हायर सेंटर रेफर करें। स्टेरॉयड की चार डोज देकर बच्चों में होने वाले खतरों को कम किया जा सकता है।
सरफेक्टेंट का निर्माण न होना है मुख्य वजह
जन्म लेने वाले बच्चों के फेफड़े कमजोर क्यों हो रहे हैं, इसको लेकर केजीएमयू के पल्मोनरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसिन के विभागाध्यक्ष डॉ. वेद प्रकाश ने कहा कि गर्भ में पल रहे शिशु के फेफड़ों का विकास अंत समय तक होता है। इसमें सबसे आखिर में बेहद अहम पदार्थ सरफेक्टेंट का निर्माण होता है। इस पदार्थ में 80 फीसद फास्फोलिपिड, 10 फीसद प्रोटीन व 10 फीसद न्यूट्रल लिपिड होता है। यही फेफड़े की संरचना की अंतिम इकाई एल्वियोलाइ को खोलने में मदद करता है। खासकर कम दिनों के बच्चों में सरफेक्टेंट कम बनता है या नहीं भी होता है। ऐसे में फेफड़े के एल्वियोलाइ बिना हवा के गुब्बारे नुमा चिपके रहते हैं। लिहाजा, फेफड़े में हवा अंदर-बाहर नहीं हो पाती है। इससे बच्चा आरडीएस का शिकार हो जाता है।
जन्म के समय रोना जरूरी, यह भी रखें ध्यान
डॉ. वेद प्रकाश के मुताबिक जन्म के समय बच्चे का रोना जरूरी है। इससे उसके फेफड़े पर प्रेशर पड़ता है और एल्वियोलाइ खुलते हैं। वहीं, जन्म के समय बच्चे के शरीर में नीलापन, नथुनों का फूलना, गडग़ड़ाहट या सांय-सांय की आवाज आना, सांस लेते वक्त पसलियों के बीच गड्ढे पड़ जाना आरडीएस के लक्षण हैं। ऐसे में एबीजी और ईको कार्डियोग्राफी जांचें महत्वपूर्ण हैं।