वाह रे ! जबरिया लेखक...किताब बहुत अच्छी है ये किसे समझते हो
दैनिक जागरण के स्पेशल कॉलम कलाकारी में साहित्यकारों की मनोदशा पर तंज।
वाह रे ! जबरिया लेखक
कल तक तो साहित्य से भागते थे, आप तो लेखक हो गए देखते-देखते। जबरन जो दी थी आपने अपनी किताब, वो मैंने पढ़ी है। लिखकर एकदम गजब ढाते हैं। ऐसे सतही विचार और हल्के शब्द कहां से लाते हैं? क्या लिखते हैं! मेरा सीधा सवाल है, क्यों लिखते हैं? हनुमान चालीसा से भी पतली किताब लिखकर खुद को लेखक क्यों बताते हैं? लेखक का लबादा ओढ़कर किसे रिझाते हैं? बिक्री का आंकड़ा दहाई न छू सका, किताब बहुत अच्छी है ये किसे समझाते हैं? कलाकार को महफिल में रंग जमाना होता है, नहीं तो दर्शक चले जाते हैं। लेखक को भी कलम का जादू चलाना होता है। पर आप बेफिक्र रहिए क्योंकि आप तो पाठकों के लिए लिखते ही नहीं। आप तो लिखते हैं नाम के आगे लेखक जुड़वाने के लिए। बुद्धिजीवी की पंक्ति में आने के लिए। चेहरा चमकाने के लिए। सोशल मीडिया पर अपनी हवा बनाने के लिए।
मैं दु:ख की बदली...
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा ज्ञान... साहित्य में आंसुओं का हमेशा ही महत्व रहा है। हास्य से ज्यादा दर्द का साहित्य लिखा और पढ़ा जा रहा। अपने शहर के कलमकारों की कलम भी दर्दीले रास्तों पर चल रही है। उस पर भी भोगे गए यथार्थ को लिखने की होड़ सी मची है। हर तीसरी कलम खुद को 'मैं नीर भरी दु:ख की बदली...Ó साबित करने में लगी है। उसकी पीड़ा मेरी पीड़ा से ज्यादा कैसे? मेरी स्याही का रंग ज्यादा स्याह है। मैंने उससे ज्यादा सहा है। रोने-धोने की इस रेस में महिला कलमकार अग्रिम पंक्ति में हैं। कविता, कहानी और उपन्यास...विधा कोई हो, मूल में क्रंदन ही है। लेखनी का ये स्थायी भाव अब चेहरे पर भी नजर आने लगा है। दर्द से भरा चेहरा देखकर मैंने पूछ लिया, क्या हुआ? हर वक्त इतना धीर-गंभीर क्यों? तो कलम बोली-दर्द ही छपता है, बिकता है और सुर्खियां बनता है।
चर्चा चला रही खर्चा
ये साहित्यिक गोष्ठी है। यहां सोने जागने का होश किसे है। मंच पर प्रवाहमान वक्ता और श्रोता दीर्घा में आंख बंद कर चिंतन मनन करते लोग। कुछ तो औंधे मुंह भी पड़े रहते हैं। आप कहेंगे ये कैसे असाहित्यिक लोग हैं? उनका जवाब होगा, पहले साहित्यिक चर्चा को सुपाच्य बनाइए, गरिष्ठता हाजमा खराब कर देती है। सेहत के लिए साहित्य से ज्यादा नींद जरूरी है। अब आप नसीहत देंगे कि सोना है तो घर जाओ, यहां क्यों आए हो? वो कहेंगे, आयोजन में हमारी भी हिस्सेदारी है, हाजिरी तो लगानी ही होती है। कार्यक्रम के लिए भारी भरकम बजट मिला है। आधा वो डकार लेंगे, कुछ हमें भी मिलेगा। चाय, समोसा और नमकीन-बिस्किट तो बोनस हैं। आप पूछोगे, क्या कार्यक्रम कमाई का जरिया हैं? वो झट से कहेंगे, जी हां! सबसे सुगम, सस्ता और टिकाऊ। आमदनी के साथ संबंध तो मजबूत होते ही हैं, अखबार में चेहरा भी चमकता है।
संगीत के प्रधान सेवक
ये संगीत के स्वघोषित प्रधान सेवक हैं। संगीत सेवा का बीड़ा इन्होंने अपने कंधों पर उठा लिया है। संगीत ने कहा नहीं था, इन्होंने खुद ही जिम्मेदारी ले ली। इस जिम्मेदारी को वो किसी और के साथ साझा भी नहीं करना चाहते। अगर कोई भूले से भी बोझ हल्का करने की बात कह दे तो भड़क जाते हैं। सुरमयी भाषा में ही अपना क्रोध निकालते हैं। अपने आगे वो किसी और को कलाकार मानते ही नहीं। संगीत बहुत याचना भरी नजरों से उन्हें देख रहा है कि वह उस पर से कब्जा हटा लें पर वो तो इसे अधिकार समझते हैं। आखिरकार उन्होंने सांगीतिक दुनिया को बहुत कुछ दिया है। अब वो भी रिटर्न गिफ्ट चाहते हैं। सघन निगरानी भी करते हैं कि कहीं ये तोहफा किसी और को न मिल जाए। सूचना तंत्र भी मजबूत कर रखा है। शायद वो भूल गए हैं कि संगीत चौकीदारी नहीं, समर्पण मांगता है।