99 Years of Lucknow Zoo: ट्वाय ट्रेन में बैठना है तो पहले लगिए लाइन में
चिडिय़ाघर की बाल ट्रेन पर बैठना आसान नहीं है। छुट्टी के दिनों में तो दर्शकों की लंबी लाइन ट्रेन में बैठने के लिए इंतजार में रहती है और टिकट मिल जाए तो समझो बात बन पाती है। रविवार को तो टिकट पाने के लिए दो-दो लाइन लगी थी।
लखनऊ, जेएनएन। चिडिय़ाघर की बाल ट्रेन पर बैठना आसान नहीं है। छुट्टी के दिनों में तो दर्शकों की लंबी लाइन ट्रेन में बैठने के लिए इंतजार में रहती है और टिकट मिल जाए तो समझो बात बन पाती है। रविवार को तो टिकट पाने के लिए दो-दो लाइन लगी थी। वैसे तो चिडिय़ाघर प्रशासन ने बैटरी चलित वाहन भी दर्शकों के लिए उपलब्ध करा रखा है लेकिन बाल ट्रेन पर बैठने का आकर्षण ही अलग है। यह ट्रेन भी कई दशक से चल रही है और पहले रेलवे के हाथों में इसका संचालन था। पटरी पर रेल विभाग से ही दी गई थी। समय के बाद ट्रेन को साज-सज्जा कर और भी आकर्षित बनाया गया है।
करीब 23 साल से बाल ट्रेन को चला रहे अनीस कहते हैं कि ट्रेन जब चलती है तो दर्शकों की खुशियां देखते ही बनती है। बच्चे ही नहीं परिवार के अन्य लोग भी रोमांचित मुद्रा में ही दिखाई देते हैं और जब ट्रेन सफेद बाघ के बाड़े की तरफ पहुंचने वाली होती है तो हर कोई इस पल को कैमरे में कैद करने में जुट जाता है।
अवकाश के दिनों में तो टिकट के लिए लाइन तक लगती है। वैसे चिडिय़ाघर की बाल ट्रेन हमेशा से ही आकर्षण का केंद्र रही है। पहले बाल ट्रेन का स्वरूप कुछ और ही था, लेकिन समय के बाद वह बदलती गई। मौजूदा समय 80 सीट वाली यह ट्रेन है, जो डीजल से चलती है।
तीसरी ट्रेन है
चिडिय़ाघर में पहली बार ट्रेन 1969 में तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त के प्रयास से आई थी। उन्होंने बच्चों को चिडिय़ाघर से और अधिक जोडऩे के लिए किया था। उप निदेशक डा. उत्कर्ष शुक्ला बताते हैं कि 2009 में ट्रेन को बदला गया और फिर 2014 में नई ट्रेन को गुजरात से लाया गया,जो आज चल रही है। उसकी मरम्मत के लिए गुजरात से इंजीनियर को बुलाया जाता है। पहले ट्रेन 2.5 किलोमीटर चलती थी और अब 1.8 किलोमीटर चलती है। ट्रैक का घेरा बढ़ा दिया जाता है।