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Navratra 2020: यहां मुस्लिम महिलाओं के चिराग से नौ दिन रोशन होता है मंदिर, पूजा के साथ रखे जाते हैं व्रत भी

नवरात्र के अवसर पर हिंदुओं के साथ साथ मुस्लिम भी रखते हैं आस्था। अयोध्या के जैतापुर का घूरदेवी मंदिर में धर्म व जाति नहीं बनी दीवार व्रत रखकर मुस्लिम महिलाएं करती हैं पूजन-अर्चना। मंदिर के निर्माण से लेकर पूजन तक का खर्च उठाते हैं अल्पसंख्यक समुदाय के लोग।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Sat, 24 Oct 2020 04:43 PM (IST)Updated: Sat, 24 Oct 2020 04:43 PM (IST)
Navratra 2020: यहां मुस्लिम महिलाओं के चिराग से नौ दिन रोशन होता है मंदिर, पूजा के साथ रखे जाते हैं व्रत भी
अयोध्या के जैतापुर का घूरदेवी मंदिर में धर्म व जाति नहीं बनी दीवार, व्रत रखकर मुस्लिम महिलाएं करती हैं पूजन-अर्चना।

प्रदीप तिवारी, बहराइच। देश में मंदिर-मस्जिद को लेकर दो समुदायों में बंटवारे की बात करने वालों के लिए घाघरा के तट पर बना जैतापुर का घूरदेवी मंदिर सद्भावना की नजीर बना हुआ है। यह मंदिर सिर्फ हिंदू नहीं, बल्कि दुर्गापूजा के नौ दिन मुस्लिम महिलाओं के चिराग से रोशन होता है। यहां मंत्रोच्चार के बीच मुस्लिम महिलाएं मां दुर्गा की उपासना ही नहीं करती, बल्कि नौ दिनों का व्रत रखकर हर दिन पूजन-अर्चन के लिए आती हैं। मान्यता है कि यहां देवी घूर (गोबर की खाद) के बीच प्रकट हुई थी, इसीलिए उन्हें घूरदेवी के नाम से जाना जाता है।

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अयोध्या में लंबे संघर्षों के बाद मंदिर-मस्जिद का विवाद कोर्ट के फैसले के बाद सुलझा, लेकिन जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर घाघरा के तट पर बना घूरदेवी मंदिर हिंदू व मुस्लिम समुदायों के बीच खुशहाली का पैगाम दे रहा है। हिंदू- रीति-रिवाज से मुस्लिम समुदाय की महिलाएं घूरदेवी की पूजा करती हैं, जो गंगा-जमुनी तहजीब का बड़ा उदाहरण है। मंदिर में पूजा करने आईं क्षेत्र के जिहुरा मरौचा की साकिया बेगम ने बताया कि पिछले 10 सालों से वे नवरात्रि में पूजन के लिए यहां आती हैं। हेमनापुर गांव की मरवट मजरा की साकिरा, बहराइच शहर की जाकरुन, कैसरगंज की सीमा, नानपारा की नजमा, डोकरी की मैसरून ने कहा कि मंदिर से हमारी आस्था जुड़ी हुई है। हमें यहां आने से तसल्ली मिलती है। परिवार खुशहाल है। इस सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ मंदिर के प्रबंधक मुहम्मद अली का है। उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति परवान चढ़ती नजर आ रही है। वे कहते हैं कि जिस मां के चरणों को चूमने के लिए घाघरा बेताब रहती हैं, उस मंदिर की ड्योढ़ी पर आने वाले दोनों समुदायों के बीच जाति व धर्म कभी दीवार नहीं बनी, बल्कि सरंक्षण व निर्माण तक की जिम्मेदारी मुहम्मद अली क्षेत्रीय लोगों की मदद से कर रहे हैं। इन्हीं के चिराग से मंदिर ही नहीं, बल्कि समुदाय के बीच का मैल भी धुल रहा है।

400 वर्ष पुराना मंदिर का इतिहास

मंदिर करीब 400 साल पूर्व सीतापुर जिले के मल्लापुर राजघराने में स्थित था। गहरू बाबा सीतापुर से पिंडियां लेकर आ रहे थे। नदी पार कर वह घाघरा के तट पर रुके और मां की पिंडियों को रख दिया। जब वह उसे उठाने लगे तो पिंडियां नहीं उठी। इसके बाद गहरू बाबा वापस चले गए। बाद में गांव के लोग उस स्थान का प्रयोग घूर लगाने के लिए करने लगे। जब घूर यानि गोबर की खाद उठाने लगे तो वहां रक्त का प्रभाव शुरू हो गया। आस्था की इस ड्योढ़ी पर मां घूरदेवी का अवतरण हुआ। दोनों आंखों से दिव्यांग मुहम्मद अली ने स्वप्न देखकर मंदिर के जल से चेहरे को धोया तो उनके नेत्र की रोशनी लौट आई। उन्होंने मंदिर का निर्माण जनसहयोग से कराया। वह नमाज के साथ ही मंदिर में पूजा भी करते हैं। यहां पर चढ़ाया गया नीर नेत्र रोगी के लिए वरदान साबित होता है। आंख की बीमारी से परेशान लोग नवरात्र में नौ दिनों तक मंदिर में मत्था टेकते हैं। उनकी कामना मां घूर देवी पूरी करती हैं।


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