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खाने की तलाश में नेपाल से हर साल आता है एक झुंड, आधे से अधिक नहीं लौटते वापस Lucknow News

नेपाली हाथियों का डेरा शुक्लाफाटा से दुधवा किशनपुर मैलानी होते हुए पीलीभीत तक। नवंबर-दिसंबर में आकर मार्च तक मचाते हैं खूब उत्पात वनकर्मी बता रहे शुभ संकेत।

By Divyansh RastogiEdited By: Published: Mon, 20 Jan 2020 07:30 AM (IST)Updated: Mon, 20 Jan 2020 07:59 AM (IST)
खाने की तलाश में नेपाल से हर साल आता है एक झुंड, आधे से अधिक नहीं लौटते वापस Lucknow News
खाने की तलाश में नेपाल से हर साल आता है एक झुंड, आधे से अधिक नहीं लौटते वापस Lucknow News

लखनऊ [अंकित कुमार]। जंगल की दुनिया में भी नागरिकता मुद्दे को लेकर हलचल मची है। यहां हंगामे की वजह बने हैं नेपाली हाथियों के झुंड, जो भोजन की तलाश करते हुए भारत में घुस तो आते हैं, मगर उनमें से आधे से अधिक वापस नहीं जाते। भारत की आबोहवा उन्हें इस कदर भा रही है कि यहां के जल-जंगल और जमीन पर काबिज होते जा रहे हैं। पिछले दो-तीन साल में ही ऐसे 'शरणार्थी' हाथियों की संख्या दो सौ के पार पहुंच गई है। अब यह परदेसी हाथी हर साल जमकर उत्पात मचाते हैं। फसलें उजाड़ते हैं। लोगों पर हमला करते हैं। मगर वन्यकर्मी उनकी आमद जंगल के लिए शुभ संकेत के रूप में देख रहे हैं। 

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नेपाल की शुक्लाफाट सेंचुरी और वार्दिया नेशनल पार्क तराई स्थित पीलीभीत, लखीमपुर, बहराइच के जंगल से जुड़े हैं। इंसानों की तरह ही बाघ, तेंदुआ, चीतल, हिरन, भालू आदि जानवर भी बिना रोक-टोक दोनों देशों की सीमाओं में हमेशा से विचरण करते हैं। हां, 90 के दशक से पहले तक हाथियों का जमावड़ा नेपाल तक ही सीमित था, लेकिन 1990 के बाद अचानक उनका रुख भारतीय जंगल की तरफ बढऩे लगा। शुरुआत में सीमावर्ती इलाकों तक सिमटे रहे मगर धीरे-धीरे उन्होंने शुक्लाफाटा से लखीमपुर खीरी के किशनपुर, मैलानी, दुधवा, बहराइच के कतर्नियाघाट समेत पीलीभीत तक करीब 300 किमी लंबा स्वयंभू कॉरीडोर बना लिया। 

तब से हर साल नवंबर-दिसंबर के बीच 50 से 70 हाथियों का झुंड भारत की सीमा में दाखिल होता है और तीन-चार महीने गुजारने के बाद वापस लौट जाता। चूंकि एक समय के बाद नेपाली हाथियों की वापसी स्वत: होती रही तो वनकर्मियों ने भी ध्यान नहीं दिया, मगर करीब तीन साल से इन हाथियों के व्यवहार में अप्रत्याशित बदलाव आया है। वे झुंड बनाकर आते तो हैं, लेकिन हर बार करीब आधे यहीं के होकर रह जाते हैं। इसी के चलते धीरे-धीरे दुधवा जंगल में शरणार्थी हाथियों का कुनबा 100 के पार पहुंच गया है। जबकि कर्तनिया घाट क्षेत्र में 50 से अधिक हाथी मुश्किल बने हैं।

हालात बदल रहे हैं...

दुधवा नेशनल पार्क के फील्ड डायरेक्टर संजय पाठक के मुताबिक, नेपाली हाथियों के आने का चलन पुराना है, मगर अब हालात बदल रहे हैं। नेपाल के सीमाई इलाके जंगल कटने से उनका आशियाना सिमट रहा है। भोजन का संकट भी है, जिसकी तलाश में वे भारत का रुख करते हैं। यहां उन्हें रहने के लिए पर्याप्त जगह और खाने के लिए वनस्पति, गेंहू, गन्ने की फसल मिल जाती है। चूंकि जंगली हाथी अपने निर्धारित कॉरीडोर पर चलते हैं, इस कारण अक्सर रास्ते में पडऩे वाली फसलें और छप्पर आदि भी उजाड़ देते हैं। उत्पात मचाते हैं। किसानों पर हमला करते हैं। कुछ को मौत के घाट भी उतार चुके हैं।

जंगल के लिए अच्छे संकेत...

तराई नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी सचिव डॉ. वीपी सिंह के मुताबिक, हाथियों का झुंड सीमावर्ती किसानों के लिए बेशक मुश्किल है मगर जंगल के लिए शुभ संकेत है। यह चलायमान होता है और अत्याधिक भोजन करता है। इसलिए भविष्य में नेपाली हाथी ग्रास लैंड प्रबंधन में मददगार साबित हो सकते हैं।

नहीं निकल रहा हल...

भारत में हंगामा मचाने वाले इन हाथियों का मुद्दा डिप्लोमेसी की मेज तक पहुंच गया है। अब नेपाल इन हाथियों को अपना नहीं मान रहा। इसी टकराव के चलते दोनों देशों के बीच बैठकें जारी हैं। पिछले महीने पीलीभीत में प्रदेश के पीसीसीएफ वाइल्ड लाइफ सुनील पांडेय शुक्लाफाटा, नेपाल के वाइल्ड लाइफ वार्डन लक्ष्मण प्रसाद कौडिय़ाल के बीच बैठक हुई मगर कोई हल नहीं निकल पाया।

किसानों के लिए आफत, जंगल के लिए बरकत!

सीमावर्ती वनक्षेत्र में नेपाल से पहुंचे हाथियों की संख्या दो सौ के पार पहुंच गई है। परदेसी हाथी हर साल जमकर उत्पात मचाते हैैं। फसलें उजाड़ते हैैं। लोगों पर हमला करते हैं। मगर वन्यकर्मी उनकी आमद जंगल के लिए शुभ संकेत के रूप में देख रहे हैं। 


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