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विश्व विरासत दिवस: दरकती दीवारें बयां कर रहीं दिलकुशा कोठी की दास्तां

संरक्षित इमारत को संवारने की कवायद शुरू दर्शकों के लिए बनेगा कैफेटेरिया।

By Divyansh RastogiEdited By: Published: Sun, 14 Apr 2019 03:51 PM (IST)Updated: Tue, 16 Apr 2019 08:25 AM (IST)
विश्व विरासत दिवस: दरकती दीवारें बयां कर रहीं दिलकुशा कोठी की दास्तां
विश्व विरासत दिवस: दरकती दीवारें बयां कर रहीं दिलकुशा कोठी की दास्तां

लखनऊ[जुनैद अहमद]। दरकती दीवारें, टूटी सीढिय़ां, गिरा प्लास्टर। कुछ ऐसी ही हालत दिलकुशा कोठी की है। अंग्रेजों से लोहा लेने वाले देश के जांबाजों के बलिदान की साक्षी यह कोठी अपनी बदहाली की दास्तां बयां कर रही है। हालांकि इसे फिर से संवारने की पहल की गई है। दर्शकों की सुविधा के लिए इस कोठी के किनारे कैफेटेरिया व शौचालय निर्माण कराया जा रहा है।  

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कभी युद्ध कौशल के अभ्यास में तलवारबाजी की खनक से गुंजायमान रहने वाली इस कोठी का वातावरण अब बदहाली की खामोशी में बदल गया है। संरक्षित वर्ग में शामिल होने के बाद भी रखरखाव की कमी होने से इमारत की स्थिति दयनीय हो गई है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से कुछ समय पहले दिलकुशा कोठी की मरम्मत की जा रही थी, लेकिन वह काम मुकम्मल नहीं हुआ। उत्तर-पूर्व दिशा में बनी दूसरी कोठी की हालत भी दयनीय है। इमारत का कई हिस्सा दरक गया है, तो दीवारों से प्लास्टर हट चुका है। दोनों कोठी के चारों ओर लगी तमाम लाइटें महीनों से खराब पड़ी हैं, जिसके अंदर अब झाडिय़ां तक निकल आई हैं। 

नवाबों की आरामगाह थी कोठी

दिलकुशा कोठी का निर्माण नवाब सआदत अली खां ने सन 1797 से 1814 के मध्य अपने शासनकाल के दौरान कराया था। नवाब के मित्र ब्रिटिश रेजीडेंट गोर आउजली ने इसकी डिजाइन बनाई थी, यूरोपीय शैली में बने इस भवन में लखौरी ईंटों का इस्तेमाल किया गया है। इस भवन का प्रयोग अवध के नवाब शिकारगाह व आरामगाह के लिए करते थे। बाद में नवाब नासिरुद्दीन हैदर ने सन 1827 से 1837 के मध्य अपनी रुचि के अनुरुप इसे कोठी में परिवर्तित किया। उत्तर-पूर्व स्थित दूसरी कोठी का निर्माण अवध के अंतिम बादशाह वाजिद अली शाह ने सन 1847 से 1856 के मध्य कराया था। 

ब्रिटिश जनरल ने ली अंतिम सांसें

कोठी के आसपास बहुत बड़ा मैदान था, जहां अवध की सैन्य टुकडिय़ां अभ्यास करती थीं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय यहां अनेक ब्रिटिश लोगों को मारा गया था। अंग्रेजों से हुए इस भीषण संग्राम में दोंनों इमारत को बहुत नुकसान हुआ। ब्रिटिश जनरल हेनरी हैवलॉक ने 1857 में यहीं पर अपनी अंतिम सांस ली थीं। 

मूसाबाग पैलेस को भी संवारने की तैयारी

लखनऊ में हरदोई रोड पर स्थित मूसा बाग नवाब आसिफुद्दौला का पैलेस था। मूसा के नाम पर इस बाग का नाम मूसा बाग पड़ा। ब्रिटिश काल में यह मोंज्योर बाग के नाम से जाना जाता था। इसका निर्माण आजम-उद-दौला ने नवाब सआदत अली खां के लिए साल 1803-04 में किया था। कहा जाता है कि यहां हथियार रखे जाते थे। 1857 की क्रांति के दौरान गोला-बारूद से यह बाग उजड़ गया। अधीक्षक पुरातत्वविद् इंदु प्रकाश ने बताया कि वर्ष 2005 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने मूसाबाग पैलेस को संवारने की कवायद शुरूकी।मिट्टी के टीले में तब्दील मूसाबाग पैलेस को काफी मेहनत के बाद वजूद में लाया गया। अब उसको संवारने की कवायद तेज की गई है। बजट आने के बाद इस सत्र में मूसाबाग को संरक्षित करने काम शुरू हो जाएगा।

इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि अवध की शान कहे जाने वाले मूसाबाग कोठी में आज सिर्फ  एक बाग रह गया है। इसके ठीक बगल में कैप्टन एफवेल्स की मजार है, जिनकी मौत लखनऊ में वॉर के वक्त हुई थी। यहां लोग मन्नत मांगने आते हैं और मजार में सिगरेट चढ़ाते हैं। मुख्य वन संरक्षक के प्रवीण राव ने बताया कि मूसाबाग जंगल करीब 115 हेक्टेयर के क्षेत्र फैला है। इस बाग वन विभाग संरक्षित कर रहा है। इससे लोग यहां आकर हरियाली के साथ पिकनिक का भी मजा ले सकेंगे। इस बाग की बाउंड्रीवाल बनाई जा रही है। कर्मचारी आवास का थोड़ा काम हो चुका है। इस प्रोजेक्ट के तहत साढ़े आठ किलोमीटर बाउंड्रीवाल बनाई जाएगी।


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