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Dainik Jagran Samvadi 2019-Session 2: 'वो सती नहीं होती, लेकिन जलती आज भी है, हर तरफ हो रही महिला अधिकारों की हत्या'

Dainik Jagran Samvadi 2019 सत्र तीन- महिला होने का दंश कभी तीन तलाक तो कहीं कोख में ही हलाक करके हो रही महिला अधिकारों की हत्या।

By Divyansh RastogiEdited By: Published: Fri, 13 Dec 2019 08:09 PM (IST)Updated: Sat, 14 Dec 2019 07:13 AM (IST)
Dainik Jagran Samvadi 2019-Session 2: 'वो सती नहीं होती, लेकिन जलती आज भी है, हर तरफ हो रही महिला अधिकारों की हत्या'
Dainik Jagran Samvadi 2019-Session 2: 'वो सती नहीं होती, लेकिन जलती आज भी है, हर तरफ हो रही महिला अधिकारों की हत्या'

लखनऊ [आशुतोष मिश्र]। नारी, जिसे मानव नहीं बस वस्तु समझा गया। महाभारत के चौसर से लेकर आज के बाजार तक, वो बारंबार बेची और खरीदी गई। भोग का सामान मानकर कल भी उसका शोषण होता था और आज भी हो रहा है। कभी तीन तलाक तो कहीं कोख में ही हलाक करके उसके अधिकारों की हत्या हो रही है। अब वो सती नहीं होती, लेकिन जलती आज भी है। कालखंड कोई भी हो, पर पीर पुरानी ही है। आज भी बहुत से दु:शासन द्रौपदी का चीरहरण कर रहे हैं। अनगिनत कीचक गंदे स्पर्श से पांचाली को अपमानित कर रहे हैं। इसीलिए गोमतीनगर के बीएनए सभागार में संवादी के मंच पर 'महिला होने का दंश' उभरा। साहित्यकार मीनाक्षी स्वामी, सोशल एक्टिविस्ट नाइश हसन और अनेकता जैसी सुविज्ञ महिलाओं ने न सिर्फ इस दर्द को बयां किया बल्कि दवा पर भी मंथन किया। 

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संचालन कर रही फैजी खान ने अपने एक वाक्य से इस संवाद की जरूरत को बखूबी बयान कर दिया- 'अगर औरत की जिंदगी में सुकून होता तो आज हम यहां यह गुफ्तगू नहीं करते।' इसके बाद भावावेश में भीगी सोशल एक्टिविस्ट नाइश हसन की बातें पितृसत्तात्मक सोच का संहार करने लगी। 'लड़कियां बाहर निकलने लगीं तो टकराव बढ़ा। सती या बाल विवाह भले ही खत्म हो गया, लेकिन ऐसी बहुत सी नई चीजें आ गईं जिनसे लड़कियों का शोषण होने लगा।' पुरुष प्रधान समाज को निशाने पर रखते हुए नाइश हसन ने सोशल मीडिया पर स्त्री के शोषण के लिए बिछे जाल से लेकर तकनीक के विभिन्न आयामों के बेहूदा इस्तेमाल का पोस्टमार्टम कर डाला। 

नई उम्र की लड़कियों के लिए सलाह की बात आई तो मीनाक्षी स्वामी का आक्रोश उभरा। 'हर बार सलाह आखिर लड़कियों को क्यों? मीनाक्षी स्वामी के सवाल ने माहौल में पिन प्वाइंट साइलेंस भर दिया। अगले पल वो खुद ही बोलीं, 'हम पुरुष को संस्कारवान क्यों नहीं बनाते? लड़कों को शुरू से ही संस्कार सिखाए जाने चाहिए। सहनशीलता लड़कियों का गहना है...यह सोच भी हमें बदलनी होगी। अब विरोध उनका गहना होना चाहिए। मीडिया भी ऐसी लड़कियों को हीरो की तरह पेश करे। मीनाक्षी स्वामी ने साढ़े तीन दशक पुराना वाकया साझा किया। बताया कि दहेज के लोभी से शादी करने से इंकार करके तब एक बेटी ने बरात वापस कर दी थी। मीडिया ने उसे बहादुर बेटी बताया तो बाद के वर्षों में कई बेटियों ने ऐसा करने का दम दिखाया। 

उन्होंने स्पष्ट किया, 'ये समस्याएं सिर्फ स्त्री की नहीं, समाज की हैं। बेटी कोख में मारी जाएगी तो आने वाले कल में बेटों की शादी नहीं होगी। इसी तरह दहेज हत्या और बलात्कार एक पिता और भाई के लिए भी त्रासद होते हैं। ऐसे में हम इसे अगर स्त्री की समस्या बताएंगे तो यह दो वर्गों का संघर्ष बनकर रह जाएगा। सारे पुरुष ऐसे नहीं। हमें नैतिक शिक्षा को फिर से पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा। अनेकता ने 'महिलाओं होने का दंश' दूर करने के लिए उनकी राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने की पैरवी की। उन्होंने मंच से संसद में महिलाओं की 33 फीसद मौजूदगी की वकालत की। दोतरफा संवाद के दौरान एक सवाल से माहौल बेहद भावुक हो गया। जवाब देतीं नाइश हसन की आवाज ने सबको इसका अहसास करा दिया। 'औरतों को समाज सामान के तौर पर देखता है। पितृसत्तात्मक समाज अपने मुताबिक उसे रखता आया है। इसीलिए तो हमें ही वेश्या, कोठेवाली जैसे हर बदनाम नाम दिए गए।। हमें ऐसे लोगों का जवाब देना होगा। उन्होंने कहा- 'हम चुप न रहते तो आज संसद में 78 नहीं हमारी संख्या 108 होती। हमारी चुप्पी के चलते ही नौ करोड़ महिला आबादी के बाद भी प्रदेश में एक भी वीमेन यूनिवर्सिटी नहीं है। अगले पल उन्होंने अपना ही उदाहरण दिया- 'अगर मैं मौलवी और मुस्लिम के बारे में सोचती तो शायद कुछ न कर पाती। नाइश ने कहा- 'लड़कियों को मुखर होना होगा। उन्हें सरकार से पूछना होगा कि लड़कों के लिए शादी की उम्र 21 और लड़कियों के लिए यह 18 क्यों?

देश से खत्म हो 'मुता

नाइश हसन ने संवादी के मंच से मुस्लिम समाज में कुप्रथा का रूप ले चुके 'मुता' निकाह के खात्मे की आवाज उठाई। उन्होंने कहा कि जल्द ही इस पर उनकी एक किताब आ रही है। यह एक ऐसी प्रथा है जिसमें छोटी बच्चियां बड़ी उम्र के पुरुषों की कुछ निश्चित दिनों के लिए पत्नी बनती हैं।

श्रोताओं के बोल

हर औरत के दंश में कहीं न कहीं एक दूसरी औरत वजह बनी नजर आती है। वो वही है जो एक स्त्री के उत्पीडऩ के लिए पुरुष का समर्थन करती है। ऐसा न हो इसके लिए क्या करें?

सतरूपा पांडेय

महिला होने का दंश आज का नहीं सदियों पुराना है। हमें मान्यताओं में खुद फर्क लाना पड़ेगा। हम अगर ऐसे ही उत्तर देती रहेंगी तो समाज सतरंगी नहीं होगा। हमें सवाल पूछना होगा।

डॉ. मंजू शुक्ला


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