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प्रकृति ने निर्देशन की कमान संभाल रखी है और शास्त्रों में वर्णित योगमाया पटकथाएं लिख रही

Coronavirus News In UP यह कठिन समय परीक्षा का है। ईश्वर परीक्षा ले रहा है। धैर्य की समझ की साहस की भावनाओं की और मानवता की। इसमें समाज के विद्रूप चेहरे भी नजर आ रहे हैं अलंकृत भी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 03 May 2021 12:33 PM (IST)Updated: Mon, 03 May 2021 12:33 PM (IST)
प्रकृति ने निर्देशन की कमान संभाल रखी है और शास्त्रों में वर्णित योगमाया पटकथाएं लिख रही
फर्रूखाबाद के शृंगीरामपुर घाट पर लक्ष्मणदास मोदी की समाधि के पास खड़े लोग। जागरण आर्काइव

लखनऊ, राजू मिश्र। Coronavirus News In UP ईश्वर, मानो उत्तर प्रदेश में किसी फीचर फिल्म का दृश्यांकन कर रहा हो। चांद और सूरज प्रकाश रूपी कैमरे थामे जैसे शिफ्टों में काम कर रहे हों। दृश्य कई हैं, श्मशान में एक साथ जलती कई चिताएं, अस्पतालों में बिखरती-सिमटती संवेदनाएं और भी जाने क्या-क्या। प्रकृति ने निर्देशन की कमान संभाल रखी है और शास्त्रों में वर्णित योगमाया पटकथाएं लिख रही हैं। इन कथाओं में सभी भावों के रस सक्रिय हैं। करुण और वीभत्स रस सर्वाधिक मुखर है। बीते सप्ताह गाजियाबाद की शिप्रा सन सिटी में प्रकृति ने जो कहानी लिखी, उसमें करुणा के साथ संवेदना और समाज का भी अहम हिस्सा रहा।

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हममें से कइयों ने वो फिल्में देखी होंगी जहां एक बीमार मां या पिता बेटी के हाथ पीले करने की अंतिम इच्छा लेकर अस्पताल में जूझ रहा होता है और बेटी का हाथ भावी दामाद के हाथ में थमा कर खुद दुनिया से विदा हो जाता है। भव्य सेट और नकली किरदार जमा कर बनाई गई ऐसी तमाम फिल्मों को यह कहानी फ्लाप साबित कर देगी। कोरोना काल में जहां कई तरफ से रिश्तों के सूखने की सूचनाएं आ रही हैं, यह सत्यकथा करुण होते हुए भी समाज का एक चमकता चेहरा प्रस्तुत करती है।

पृष्ठभूमि यह है कि इस कालोनी में रहने वाली एक बेटी पारुल अपने माता-पिता राजकुमार व कल्याणी और स्वयं सहित तीन लोगों का परिवार चला रही थी। पिता की दोनों किडनियां फेल हो चुकी थीं। एक किडनी मां ने दी। अब वह भी काम नहीं कर रही थी। इसी बीच बेटी की शादी तय हुई। 30 अप्रैल को शादी थी और 29 को पिता की तबीयत बिगड़ने लगी। असली कहानी यहां से शुरू होती है। 29 अप्रैल की शाम को ही मेहंदी की रस्म थी, खुशियां थीं, उत्साह था। लेकिन, इसी बीच राजकुमार की हालत बिगड़ी और बिगड़ती गई। शरीर में आक्सीजन का स्तर 47 तक पहुंच गया। यहां से समाज सक्रिय हुआ। शिप्रा सनसिटी के रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए) के सहयोग से वहां के क्लब हाउस में बने आइसोलेशन सेंटर में उन्हें रखा गया। आक्सीजन दी गई, लेकिन राजकुमार को आंतरिक संकेत मिलने लगे कि अब जीवन यात्रा पूर्ण होने वाली है। एकमात्र इच्छा शेष थी- बेटी के कन्यादान की। लेकिन, पारुल टूट चुकी थी। शादी रोकना चाहती थी। अंतत: पिता की इच्छा रखने के लिए दिल मजबूत किया और आक्सीजन बेड के सामने ही मेहंदी की रस्म पूरी हुई। बेटी ने फिर भी हिम्मत न हारी। मेहंदी रचे हाथ लिए दिल्ली एनसीआर सब जगह पिता को बेड दिलाने के लिए भटकती रही।

अगले दिन की तारीख 30 अप्रैल थी। पिता को भर्ती करने के लिए किसी तरह मैक्स अस्पताल में बेड मिला। रातभर सोसायटी के क्लब हाउस में ही आरडब्ल्यूए और स्थानीय पार्षद उनकी देखभाल में जुटे रहे। सबने एक-एक घंटे की ड्यूटी लगा ली। रात आंखों में कटी। विवाह के दिन की भोर हुई। लेकिन, सपनों के बजाय बेटी के मन में चिंता तैर रही थी। वह पिता को अस्पताल ले जाने की जिद पर थी तो पिता राजकुमार बगैर कुछ कहे भी मानो जिद पर थे, कि पहले बेटी ससुराल विदा होगी। फिर, जिदों की टकराहट के बीच एक मौन समझौता हुआ। उसी क्लब में लगे बेड के पास पारुल ने अपने जीवनसाथी संजय कुमार के साथ सात फेरे लिए। बेटी को अब विदा होना था, लेकिन वह और उसका जीवनसाथी पिता को एंबुलेंस में लेकर अस्पताल की ओर बढ़ने लगे। लेकिन, फिल्मी क्लाईमेक्स की तरह ही विधाता ने इस कहानी की पटकथा भी लिख रखी थी। अस्पताल पहुंचने से पहले ही पिता ने महाप्रयाण की राह पकड़ ली। मानों जीवन की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो चुकी हो। बेटी पारुल ने जिस तरह अपना फर्ज निभाया, वह उन लोगों की आंखें खोलने वाला है जो बेटों की चाह में बेटी को पराया धन कहकर उसकी उपेक्षा करते हैं। और, बदले में ऐसे लड़के पैदा होते हैं, जो सामान्य समय में भी पिता के अंतिम संस्कार तक के लिए वक्त नहीं निकाल पाते। फर्रुखाबाद के लक्ष्मण मोदी के बेटों की तरह।

मूलरूप से झारखंड के झुमरी तलैया निवासी 80 वर्षीय बुजुर्ग लक्ष्मणदास मोदी पत्नी के साथ शास्त्रीनगर में शैलेंद्र सिंह के मकान में चार साल से किराये पर रह रहे थे। एक बेटा मुंबई में साफ्टवेयर इंजीनियर है तो दूसरा कानपुर में नौकरी करता है। उन्हें पिता के मौत की सूचना दी गई तो उन्होंने उनसे कोई वास्ता होने से भी इन्कार कर दिया। हां, अंतिम संस्कार के पैसे अकाउंट में ट्रांसफर करने का दंभ जरूर फेंक दिया। ऐसे में हर मां-बाप इंजीनियर बेटों के बजाय पारुल जैसी बेटी की कल्पना करने लगें तो आश्चर्य नहीं.. करना भी चाहिए। मानवता भी नए सिरे से परिभाषित हो रही है। फर्ज का व्याकरण भी बदल रहा। पड़ोसी का धर्म भी खूब निभाया और उससे पीछा छुड़ाया जा रहा। लक्ष्मणदास मोदी के बेटों ने जब किनारा किया तो मकान मालिक और पड़ोसी आगे आए और बुजुर्ग की अर्थी को कांधा दिया। लेकिन, कानपुर में जब वरिष्ठ साहित्यकार अंबिका प्रसाद शुक्ल की मौत हुई तो बेबस बेटी और नातिन के साथ उन्हें अकेला छोड़ पड़ोसी अपने दड़बों में दुबक गए। यहां बदनाम रही खाकी ने दाग धोए और उन्हें कांधा दिया। यह कठिन समय परीक्षा का है। ईश्वर परीक्षा ले रहा है। धैर्य की, समझ की, साहस की, भावनाओं की और मानवता की। इसमें समाज के विद्रूप चेहरे भी नजर आ रहे हैं, अलंकृत भी।

[वरिष्ठ समाचार संपादक, उत्तर प्रदेश]


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