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दुधवा नेशनल पार्क में पुष्पाकली की विरासत लेने की होड़

पिछले दिनों जब पुष्पाकली की मौत हुई तो यह किसी वन्य जीव की स्वाभाविक मौत नहीं बल्कि दुधवा नेशनल पार्क की एक कर्मठ व कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी की मौत थी।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Fri, 22 Dec 2017 03:32 PM (IST)Updated: Fri, 22 Dec 2017 03:32 PM (IST)
दुधवा नेशनल पार्क में पुष्पाकली की विरासत लेने की होड़

लखीमपुर [अजय शुक्ला]। सर्दियों में पर्यटकों के पसंदीदा स्थान दुधवा नेशनल पार्क के घने जंगलों में इन दिनों नैसर्गिक कोलाहल के बीच एक और मरमराहट ध्यान खींच रही है। बीते दिनों नेशनल पार्क की सबसे बुजुर्ग हथिनी पुष्पाकली का लगभग 86 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। तब से चर्चा किसी न किसी बहाने रोज ही छिड़ जाती है कि पुष्पाकली का स्थान कौन लेगा। 

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इन चर्चाओं में पुष्पाकली की जगह लेने को जिन दो नामों पर चर्चा जाकर ठहरती है, वह हैं पुष्पाकली की सहेली गंगाकली और उसका बेटा बटालिक। यहां पर बात केवल उम्र और अनुभव की होती तो कोई भी एक बार में कह देता गंगाकली, लेकिन यह इतना आसान नहीं हैं।

लखनऊ से करीब 230 किलोमीटर दूर पलिया (लखीमपुर) स्थित 884 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले दुधवा नेशनल पार्क में पुष्पाकली ने हुनर और हौसले से जो दर्जा हासिल किया था, उस तक पहुंचने के लिए दूसरे हाथियों को लंबा सफर तय करना पड़ेगा। यहां पर पुष्पाकली पर्यटकों के बीच बेहद लोकप्रिय थी। 

मजाल है कि सलूकापुर बेस कैम्प स्थित गैंडा पुनर्वास केंद्र में शरारती व गुस्सैल गैंडों के बीच पर्यटकों को घुमाते हुए कभी किसी को तकलीफ होने दी हो। वह बेझिझक गैंडे के नजदीक तक जाकर पर्यटकों को भरपूर फोटो अपॉच्युर्निटी उपलब्ध कराती। परफेक्ट क्लिक तक बिना शोर किये एक ही जगह संयम के साथ खड़ी रहती। निडरता ऐसी कि बिना ठिठके बाघ के पास से गुजर जाए। 

पुष्पाकली की इसी निडरता और संयमित स्वभाव के कारण उसे दुधवा बफर जोन या दूरस्थ आबादी में पहुंच जाने वाले बिगड़ैल बाघों व तेंदुओं को ट्रैंक्युलाइज कर वापस लाने के लिए भेजा जाता था। इस तरह के कांबिंग ऑपरेशनों में दुधवा के अन्य हाथी भी भेजे जाते हैं, लेकिन पुष्पाकली वन अफसरों की पहली पसंद थी। बाघ के हमले से भी वह कभी नहीं डरी और हमेशा डटकर खड़ी रहती थी। अक्सर वह बाघों को दौड़ा भी लेती थी।

छह वर्ष पहले दुधवा से निकलकर एक बाघ (जिसे बादशाह नाम दिया गया) लखनऊ आ गया था। करीब दो महीने तक काकोरी के रहमानखेड़ा में ठिकाना बनाये रखा। इस बाघ को पकडऩे की सारी तरकीबें फेल हुईं। तब दुधवा से पुष्पाकली को बुलाया गया और उसकी कांबिंग के दौरान बादशाह दबोच लिया गया।

पुष्पाकली की ख्याति ऐसी थी कि जिम कार्बेट से भागी बाघिन पकडऩे के लिए भी उसे बुलाया गया और सफलता भी मिली। 2009 में पुष्पाकली ने फैजाबाद व 2010 में पीलीभीत में सफलतापूर्वक ऑपरेशन चलाये। इसी दौरान वह फर्रुखाबाद भी गई और मैलानी रेंज के छेदीपुर में कांबिंग की। वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्लूटीआइ) के समाजशास्त्री प्रेमचंद्र पांडेय ने करीब आठ साल पुष्पाकली के साथ गुजारे। वह उसे करीब से जानते समझते थे। 

पुष्पाकली के अंतिम दिनों में इलाज के दौरान भी प्रेमचंद्र पांडेय बेस कैंप सलूकापुर में ही मौजूद थे। मौत से दो दिन पहले पुष्पाकली बैठ गई थी। प्रेमचंद्र के अनुसार अगर हाथी बैठ जाए तो वापस उसे उठाना मुश्किल हो जाता है। फिर भी दुधवा की टीम और चिकित्सक उसे स्वस्थ करने में लगे रहे। पुष्पाकली ने जो कारनामे अंजाम दिये वही अब उसकी विरासत का वारिस तय करने में अब चुनौती साबित हो रहे हैं।

जेनरेशन गैप भरना चुनौती

दुधवा के हेड महावत इदरीश बताते हैं कि बेस कैंप और सलूकापुर में पुष्पाकली को मिलाकर 14 हाथी थे। अब तेरह बचे हैं। उम्र और अनुभव के हिसाब से देखें तो गंगाकली, पवनकली और रूपकली ही ऐसी हैं जो सलाहियत और साहस में पुष्पाकली के आसपास ठहरती हों। ये तीनों मादा हाथी 60 की उम्र के आसपास हैं। गंगाकली सबसे बड़ी और उसके बाद पवनकली व रूपकली हैं। गंगाकली और पवनकली कांबिंग ऑपरेशनों में पुष्पाकली के साथ रह चुकी हैं और उसी की तरह निडर व संयमी हैं, लेकिन पिछले काफी समय से गंगाकली व पवनकली पीलीभीत में आदमखोर बाघ को पकडऩे के अभियान में लगी हैं और फिलहाल उनके वापस लौटने की संभावना नहीं दिख रही। ऐसे में रूपकली ही सबसे अनुभवी हैं जो इस समय दुधवा में तैनात हैं। 

रूपकली भी कई कांबिंग ऑपरेशनों में भाग ले चुकी है लेकिन उसे भी कोई न कोई जोड़ीदार तो चाहिए ही। रूपकली के बाद दुधवा में जेनरेशन गैप बहुत लंबा है। 35 साल के सुंदर हाथी को छोड़ दें तो बाकी के सब 18 की उम्र के पास हैं। सुंदर भी इन दिनों चुटहिल है इसलिए पर्यटकों को सेवाएं नहीं दे पा रहा। उसे मॉनीटरिंग के काम में लगाया गया है। मोहन हाथी का संतुलन गड़बड़ाया है और उसे भी पर्यटकों व कांबिंग के काम में नहीं रखा गया। बताते हैं डेढ़ साल पहले उसने एक महावत व एक चारा कटर को पटक दिया था। इसलिए उससे भी मॉनीटरिंग का ही काम लिया जा रहा है। 

सबसे छोटे सुहेली व विनायक हैं जिनकी उम्र पांच के आसपास होगी। इन दिनों सलूकापुर में इनकी ट्रेनिंग चल रही है। ऐसे में पुष्पाकली की विरासत संभालने के लिए युवा पीढ़ी की तरफ देखना मजबूरी है।

युवा हाथियों में बहादुर है बटालिक

युवा पीढ़ी में दुधवा प्रशासन के पास जो हाथी हैं उनमें सुलोचना, चमेली, मधू, पाखरी, गजराज और बटालिक हैं जिन्हें भविष्य के लिए तैयार किया जा रहा है लेकिन जो खूबियां बटालिक और गजराज में हैं, वह दूसरों में नहीं। बटालिक और गजराज अभी हाल ही में गंगाकली के साथ पीलीभीत में आदमखोर बाघ को तलाशने के अभियान में शामिल थे। अन्य अभियानों में भी इन्हें भेजा गया है। डिप्टी डायरेक्टर महावीर कौजलगि बताते हैं कि बटालिक के अंदर अपनी मां के कई गुण हैं, लेकिन अभी वह उस स्तर का नहीं। इसीलिए जो भी महत्वपूर्ण ऑपरेशन होते हैं उसमें बटालिक को परिस्थितियां समझने के लिए जरूर इस्तेमाल किया जाता है। बटालिक 1999 में दुधवा में ही उस समय पैदा हुआ था जब भारतीय सेना ने करगिल में बटालिक सेक्टर पर फतेह हासिल की थी। इसी कारण ही उसका नाम बटालिक पड़ा। इसके अलावा सुहेली और विनायक भी दुधवा की ही पैदाइश हैं।

दुधवा कर्मचारी की तरह काम करते हैं हाथी

पिछले दिनों जब पुष्पाकली की मौत हुई तो यह किसी वन्य जीव की स्वाभाविक मौत नहीं बल्कि दुधवा नेशनल पार्क की एक कर्मठ व कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी की मौत थी। इसी कारण उसे अंतिम विदाई देने के लिए सभी हाथी, महावत और दुधवा के अधिकारी मौजूद थे। बेटे बटालिक ने भी उसे अंतिम विदाई दी। दुधवा में जंगली हाथियों के झुंड के अलावा पार्क के कर्मचारी के रूप में हाथी तैनात हैं जिनसे कई तरह के काम लिये जाते हैं। इनका खाना, वेतन, काम के घंटे और रिटायरमेंट सब तय रहता है।

सुबह की सफारी के वक्त जो लोग गैंडा पुनर्वास केंद्र का हाथी पर भ्रमण करना चाहते हैं उन्हें यह सैर कराते हैं। एक हाथी दो चक्कर लगाता है। इसके बाद इन्हें जंगलों में छोड़ दिया जाता है। यह गैंडों की मॉनीटरिंग का काम भी करते हैं। जब कभी बफर जोन या आबादी में बाघ या तेंदुओं का आतंक फैलता है तो उन्हें काबू करने के लिए भी इन्हें भेजा जाता है। इस तरह यह नेशनल पार्क के अभिन्न हिस्से की तरह रहते हैं।

कर्नाटक के हाथियों से बढ़ेगा कुनबा

दुधवा में हाथियों के घटते कुनबे को अब कर्नाटक से आने वाले नए साथियों का इंतजार है। कर्नाटक के मैसूर से दुधवा में 12 हाथी आने हैं। इसमें बाकी औपचारिकताएं पूरी हो गई हैं लेकिन इन्हे लाया कैसे जाए इसको लेकर मंथन चल रहा है। अनुभवी ट्रांसपोर्टर मिलते है जल्द दुधवा में हाथियों का कुनबा बढ़ सकता है। तब शायद पुष्पाकली की विरासत के अन्य दावेदार भी उभर आयें।


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