आजादी के दीवानों ने नील की फैक्ट्री में काम करने से कर दिया था इन्कार
पंकज शर्मा झींझक संदलपुर की नीली कोठी और यहां का बूढ़ा हो चुका पीपल का पेड़ अंग्रे
पंकज शर्मा, झींझक
संदलपुर की नीली कोठी और यहां का बूढ़ा हो चुका पीपल का पेड़ अंग्रेजों के खिलाफ हुए विरोध व उनके ढहाए जुल्म का गवाह है। आज भी यह कोठी व पेड़ लोगों को यह बयां करते हैं कि आखिर किस तरह से यहां के लोगों ने अंग्रेजों की फैक्ट्री में काम करने से इन्कार कर दिया और आखिर में उन्हें फैक्ट्री बंद कर भागना ही पड़ा।
संदलपुर कस्बे से करीब एक किमी दूर पश्चिम दिशा में हिसावा संदलपुर बंबा की पटरी पर स्थित नीली कोठी अंग्रेजी हुकूमत के जुल्मों की गवाह रही है। अंग्रेजी हुकुमत के समय यहां पर बड़े पैमाने पर नील की खेती होती थी। व्यापार में मुनाफा देख यहां पर अंग्रेजों ने फैक्ट्री खोल दी। अंग्रेज अफसरों के रहने के लिए ही यहां पर नीली कोठी बनाई गई। संदलपुर निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक शिव स्वरूप बताते हैं कि करीब 100 साल पहले इस क्षेत्र में नील की भरपूर खेती होती थी। इसे देखते हुए यहां सूखी नील तैयार करने का कारखाना खोला गया। कोठी के पास विशालकाय पीपल का वृक्ष आज भी मौजूद है। जब कोई मजदूर काम करने से इन्कार करता तो अंग्रेज अफसर उसे इसी पेड़ पर लटका कर पीटते थे। वर्ष 1924 के करीब आजादी की हवा और तेज हुई तो यहां के लोगों ने फैक्ट्री में काम करने से इन्कार कर दिया। लोगों पर काफी जुल्म किए गए पर ग्रामीणों ने अपनी एकता बनाए रखी और काम नहीं किया। इसका असर यह हुआ कि अंग्रेजों को यह फैक्ट्री बंद कर यहां से जाना पड़ा।
अंग्रेजों के बी मार्का ईट आज भी है मौजूद : कोठी में उस समय अंग्रेजी शासन की पहचान बी मार्का ईंट लगाई गई थी जो कि आज भी मौजूद है। आज भी लोग यहां आते हैं तो इसके सामने फोटो जरूर लेते है।
यहीं आकर मनाया आजादी का जश्न : देश जब आजाद हुआ तो गांव के लोगों ने नीली कोठी पर आकर ही आजादी का जश्न मनाया था। गांव के लोग कहते हैं कि आज भी हम लोग यहीं पर स्वतंत्रता दिवस मनाकर पुराने संघर्ष को याद करते हैं।