क्षतिग्रस्त लाइन बिछाकर साथी की रायफल से दुश्मन का सीना किया छलनी
वर्ष 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान नागाहिल की पहाड़ियो
अंकित त्रिपाठी, कानपुर देहात वर्ष 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान नागाहिल की पहाड़ियों में भीषण सर्दी के साथ ही परिस्थितियां भी विपरीत थीं। दुश्मन सेना की ओर से लगातार हो रही बमबारी में तीन साथियों की मौत हो गई। ग्रेनेड के हमले से कम्यूनिकेशन लाइन भी क्षतिग्रस्त हो गई, जिससे सूचनाओं का आदान-प्रदान बंद हो गया, लेकिन भारत मां की रक्षा में प्राणों की आहूति देने का प्रण कर चुके थे तो हार नहीं मानी। एक ओर जहां नई लाइन बिछाई वहीं साथी सैनिकों की रायफल संभालते हुए दुश्मन सेना पर टूट पड़े और शिकस्त देते हुए विजय पताका लहराई। उम्र के 85 पड़ाव पूरे कर चुके झींझक कस्बा निवासी रिटायर्ड हवलदार बृजलाल आज भी उस क्षण को भूल नहीं सके हैं।
झींझक कस्बे के सुभाष नगर मोहल्ला निवासी बृजलाल राजपूत बताते हैं कि वर्ष 1961 में सेना के सिग्नल रेजीमेंट में भर्ती हुए थे। वर्ष 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) के मोर्चे पर युद्ध लड़ा। पाकिस्तान से युद्ध के दौरान नागाहिल की पहाड़ियों पर तैनाती थी। तीन दिसंबर को अचानक पाकिस्तान ने हमला कर दिया। सिग्नल रेजीमेंट से होने के कारण कम्यूनिकेशन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। मुक्त वाहिनी सेना के साथ पाकिस्तान से युद्ध लड़ा जा रहा था। पहचान छिपाने के लिए नीली शर्ट व काला पैंट पहना था, क्योंकि यही मुक्त वाहिनी सेना की पोशाक थी। भारत की सेना ने भी उसी ड्रेस को पहना था। पाकिस्तान ने ग्रेनेड से हमला कर दिया, जिससे लाइन क्षतिग्रस्त हो गई और तीन साथियों की भी मौत हो गई। गोलीबारी के बीच लाइन को सही करने की सख्त जरूरत थी क्योंकि यहां की सूचना अधिकारियों तक देनी थी। साथियों संग मां भारती को नमन कर हिम्मत से लाइन को दुरुस्त किया, इसके बाद साथी की रायफल से उनपर हमला किया। करीब आठ दिन के युद्ध के दौरान दुश्मन ने भीषण गोलीबारी की तो हम सभी को 72 घंटे बचाव में छिपना भी पड़ा क्योंकि उस दौरान संसाधन कम थे। भीषण सर्दी के साथ हालात भी विपरीत थे और जहां हम लोग थे वहां से बर्फीला पानी आता था। वहीं दो दिन खाने तक को कुछ नहीं मिला, लेकिन इसके बाद भी मन में भारत मां के लिए मर मिटने का जज्बा था। मन में भोजन व परिस्थितियों को लेकर विचार ही नहीं आता था बस यही था कि दुश्मन को शिकस्त देनी है। भारत के सामने पाकिस्तानी सेना के पैर उखड़ गए और 16 दिसंबर को एक साथ 93 हजार सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया। वर्ष 1981 में सेवानिवृत्त हुए बृजलाल बताते हैं कि विजय पताका लहराने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बार्डर पर आई थी और उन्होंने सैनिकों का उत्साहवर्धन किया था।