विजया दीदी का अपना स्कूल, यहां मुस्कुराता है बचपन
तिरपाल के नीचे चलने वाला यह है विजया दीदी का अपना स्कूल
विजया दीदी का अपना स्कूल, यहां मुस्कुराता है बचपन
कानपुर। सूरज ठीक सिर के ऊपर है। तपिश चरम पर पहुंच चुकी है। झुलसाती गर्म हवा के थपेड़े 'अग्निपरीक्षा' ले रहे हैं। इस क्रूर मौसम के बीच बिल्हौर में बिठूर रोड पर भट्ठा कोठी झलइयां में भट्ठे की चिमनी का तापमान 800 डिग्री सेल्सियस के आसपास है। यहां उड़ती धूल के बीच माहौल तपते रेगिस्तान सरीखा है। दूसरी तरफ, बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ से आए हुए दर्जनों प्रवासी श्रमिक ईंटें पाथने में मशगूल हैं। कुछ आगे बढ़ते ही काफी दूर तक खाली खेत और बाग नजर आते हैं। यहां पेड़ों की ठंडी छांव में श्रमिकों के बच्चों का भविष्य गढ़ा जा रहा है। ये बच्चे इससे पहले ईंट-भट्ठों पर काम करते थे। ईंट बनाने के लिए गीली मिट्टी को पैरों से रौंदकर मुलायम बनाते थे। स्कूल जाना और पढ़ाई करना इनके लिए किसी सपने जैसा ही था लेकिन अब कल्पना, दिवाकर और संगीता जैसे बच्चों का किताबों से वास्ता है। तिरपाल के नीचे चलने वाला यह है विजया दीदी का 'अपना स्कूल'। पढ़िए हिमांशु द्विवेदी की रिपोर्ट...
पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमण की बेटी विजया रामचंद्रन ने वर्ष 1986 में इस स्कूल की शुरुआत की। विजया मूलरूप से तमिलनाडु की रहने वाली हैं। इनके पति कानपुर आइआइटी में प्रोफेसर थे। इस तरह, वह कानपुर आईं और आइआइटी हाउसिंग सोसाइटी के गोपालपुर मोहल्ले में रहने लगीं। वह बताती हैं कि मन को ये बात खटकती थी कि झाड़ू-पोंछा करने वाली या ईंट-भट्ठों पर काम करने वालों के बच्चे आखिर शिक्षा से क्यों वंचित हैं। ऐसे में उनका अधिकार उन्हें लौटाने के लिए यह छोटा सा प्रयास शुरू किया। शुरुआती दौर में ईंट-भट्टों पर काम करने वाले श्रमिकों के बच्चों को स्कूल तक लेकर आना बहुत बड़ी चुनौती थी। बच्चों को स्कूल भेजने के लिए उनके माता-पिता से गुजारिश करनी पड़ती थी। भट्ठा ठेकेदार भी धमकाते थे लेकिन हमने हार नहीं मानी। कोशिश जारी रही और आखिरकार मेहनत रंग लाई। ईंट भट्ठे के बगल में मिट्टी, बांस और तिरपाल से बने इन स्कूलों में अब तक 50 हजार से ज्यादा बच्चों का भविष्य संवर चुका है। इन्हें मुफ्त शिक्षा के साथ ही कापी-किताब, जूते-मोजे, यूनिफार्म और भोजन भी निशुल्क दिया जाता है। यहां पहुंचते ही बच्चे उत्साह के साथ आपका स्वागत करते हैं। सात साल की छात्रा संगीता फर्राटेदार अंग्रेजी में अपना परिचय देती हैं। वह टीचर बनना चाहती हैं। क्यों के सवाल पर कहती हैं कि मैं शिक्षिका बनकर उन जैसे बच्चों के लिए काम करना चाहती हूं जो मेरी तरह स्कूल नहीं जा पाते। इसी तरह, विकास पुलिस इंस्पेक्टर और कुंदन डाक्टर बनना चाहते हैं। पांच से 15 साल की उम्र के इन बच्चों का लक्ष्य तय हो चुका है। विजया दीदी को ये अपना आदर्श मानते हैं।
विजया रामचंद्रन के मुताबिक, सबसे बड़ी समस्या है कि हमें पता नहीं होता कि कौन सा बच्चा अगले साल आएगा और कौन सा नहीं। इनके माता-पिता जब अपने घर लौट जाते हैं तो अगली बार उनका ठौर बदल जाता है। वह वहीं जाते हैं, जहां ठेकेदार उन्हें भेजता है। ऐसे में कई बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। कई बार हमारे शिक्षक इन बच्चों के गांव जाकर वहां के सरकारी स्कूल में पढ़ाते हैं। इनमें से कुछ बच्चों को हम लोग अपना घर नाम के हास्टल में भेज देते हैं। उन्होंने बताया कि 10 बच्चों से स्कूल की शुरुआत हुई थी और आज इनमें से कई बच्चे अच्छी नौकरी कर रहे हैं। कोई पुलिस में है तो वकील। अब ये बच्चे ही दूसरों के लिए उदाहारण बन गए हैं। वह दूसरे लोगों से भी इन जैसे बच्चों की मदद का आह्वान करती हैं।
लक्ष्मीकांत शुक्ला स्कूल के समन्वयक हैं और रक्षा वाजपेयी व प्रदीप श्रीवास्तव इन बच्चों को पढ़ाते हैं। प्रदीप कहते हैं कि हम अपने बच्चों से ज्यादा इन बच्चों के करीब हैं क्योंकि इनका जीवन बहुत मुश्किलों भरा है। मूलरूप से झारखंड के रहने वाले करीब 27 साल के मुकेश कुमार स्कूल की व्यवस्था संभालते हैं। वह बताते हैं कि पैदा होते ही मां-बाप को ईंट पाथते देखा और जब बड़ा हुआ तो मैंने भी यही काम शुरू कर दिया। इस बीच, विजया दीदी मेरी जिंदगी में भगवान बनकर आईं। वह मुझे अपना स्कूल ले गईं। अब मैं ग्रेजुएट हूं। मेरी तरह कई और बच्चे कुछ न कुछ काम कर रहे हैं। वह कहते हैं कि भट्ठों पर काम करने वालों को जवानी नसीब नहीं होती। सही खानपान नहीं मिलने और काम के बोझ के चलते जल्द ही बुढ़ापा आ जाता है। अब इससे मुक्ति मिल चुकी है।