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Kanpur Shaharnama Column: नए सिरे से शुरू हुई कानपुर के इन नेताजी की सियासी यात्रा

कानपुर का शहरनामा कॉलम शहर के राजनीतिक गलियारों की हलचल लेकर आता है। राजनीतिक गलियारे की ऐसी चर्चाएं जो सुर्खियां नहीं बन पाईं उन्हें चुटीले अंदाज में लोगों तक पहुंचाने का प्रयास है। जानें शहर में इस सप्ताह क्या हलचल रही।

By Shaswat GuptaEdited By: Published: Sun, 04 Apr 2021 08:10 AM (IST)Updated: Sun, 04 Apr 2021 09:37 AM (IST)
Kanpur Shaharnama Column: नए सिरे से शुरू हुई कानपुर के इन नेताजी की सियासी यात्रा
कानपुर का राजनीतिक गलियारों की हलचल है शहरनामा कॉलम।

कानपुर, [राजीव द्विवेदी]। राजनीतिक गलियारों में रही हलचल को चुटीले अंदाज में फिर लेकर आया है शहरनामा कॉलम। इस बार व्यापारी नेताओं में सियासी दलों से कहीं ज्यादा खींचतान है। तो वहीं, पंचायत चुनाव काे लेकर चाचा-भतीजे की दांव पेच भी चर्चा का विषय बने हैं। आइए पढ़ते है बीते सप्ताह पर्दे के पीछे क्या चर्चाएं बनी रहीं।

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 ..तो मेवा तक थी सेवा

सियासत में यूं तो संकल्प टूटना और बदलना कोई नया नहीं है, मगर शहर की बड़ी सियासी शख्सियत में आया बदलाव उनको चाहने वालों को रास नहीं आ रहा है। अपने क्षेत्र के लोगों को परिवार समझने वाले यह नेताजी बिना किसी जातीय आधार के बाद सत्ताधारियों को चुनौती देकर अजेय रहे, मगर मोदी लहर में वह भी बिखर गए। महीनों तक तो उनको अपनी शिकस्त पर यकीन ही नहीं हो पाया। कुछ अंतराल के बाद वह सियासत में फिर सक्रिय हो गए तो बड़ी जिम्मेदारी देकर पार्टी ने उनका सम्मान भी रखा। नए सिरे से शुरू हुई नेताजी की सियासी पारी में बड़ा बदलाव दिखा, अजेय रहने तक उन्होंने खुद को लोगों का सेवक माना और उसको अपने नाम से भी जोड़ लिया, मगर अब ऐसा नहीं है। शहर में उनकी होर्डिंग्स देखकर सियासी अदावत रखने वाले तंज कसते हैं कि सम्मान की मेवा मिलने तक ही सेवा थी।

 भतीजे के दांव से चाचा चित

त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के परिणामों में तमाम सियासी दल भले अपनी थाह लेकर 2022 के समर की तैयारी करें, मगर भगवा दल के लिए शहर से सटे गांवों में क्या परिदृश्य रहने वाला है, उसकी झलक प्रत्याशियों के चयन में दिख गई। लोकसभा चुनाव के बाद से माननीय चाचा-भतीजे में चली आ रही अदावत प्रत्याशी चयन में और गाढ़ी हो गई। अगले साल अग्नि परीक्षा की तैयारी को भतीजे ने अपने माफिक दावेदारों को पार्टी का प्रत्याशी बनवाना चाहा तो चाचा कुछ ऐसों की पैरवी में थे जिन्होंने 2017 में भतीजे के लिए शूल बोये थे। चाचा जिसे किसी भी सूरत में पार्टी प्रत्याशी बनवाना चाह रहे थे, वह 2012 में प्रत्याशी के विरोध में समाजवादी चोला पहन चुका है, भतीजे के इस तर्क पर उसकी दावेदारी खारिज हो गई। अब शिकस्त से तिलमिलाए चाचा की नाराजगी अगले साल के चुनावी समर में क्या गुल खिलाती है, देखना दिलचस्प होगा।

 तलाशा दूसरा ठिकाना

शहर में सियासी दलों से ज्यादा सक्रिय रहने वाले तमाम व्यापार मंडलों के नेताओं में व्यापारी हितों की फिक्र से ज्यादा खुद के नेम और फेम की ख्वाहिश ही ज्यादा रहती है। पिछले दिनों इसकी नजीर भी देखने को मिल गई। लकदक सफेद परिधान में रहने वाले एक नेताजी ने पिछले दिनों दूसरे संगठन की ओर से सरकार के खिलाफ बाजार बंदी का समर्थन किया तो उनके संगठन वालों ने ऐसा न करने की सलाह दी, मगर उसके बाद भी वह बंदी में शामिल हो गए। संगठन के खिलाफ जाने पर उनके ही रिश्तेदार व्यापारी नेता ने उनको बेदखल किए जाने के लिए मोर्चा खोल दिया। उनको संगठन से निकाले जाने की तैयारी हो गई, मगर चाचा के वीटो से मसला टल गया और देर सवेर किनारे हो जाने की आशंका से बेचैन नेताजी ने प्रशासन से जुड़े बड़े संगठन में ठिकाना तलाश लिया, चुनाव लड़े और सदस्य बन गए।

 टिकाऊ से ज्यादा जिताऊ पर भरोसा

राजनीतिक दलों द्वार नीति, निष्ठा और विचारधारा की बातें भले की जाती हों, मगर चुनावी जीत के लिए ये सब गौण बातें हैं। चुनाव कोई भी हो, टिकट वितरण में प्रत्याशियों से खास अपेक्षा रखने वाली पार्टी में तो ये सब बेमानी ही है। लोकसभा चुनाव में गठबंधन से मिली ऊर्जा के बाद 2022 की तैयारी से पहले पंचायत चुनाव में पार्टी में प्रत्याशियों के चयन के लिए टिकाऊ और जिताऊ का पैमाना तय हुआ, मगर हुआ उससे ठीक उलट ही। बसपा सरकार में पार्टी की जीतने वाले एक नेताजी ने अगले ही चुनाव में भगवा दल का दामन थाम लिया और फिर चुनाव जीत गए। विधानसभा उप चुनाव में टिकट की मुराद पूरी न होने पर फिर वापसी कर ली। जिला पंचायत सदस्य के लिए उनको टिकट भी मिल गया। अध्यक्ष पद आरक्षित होने से जीतने पर उनका दावा भी होगा, मगर पार्टी की नीति फिर दरकिनार हो गई।


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