करुणा के सजल मेघों को नीचे झुका दो प्रभु.., राधा-कृष्ण के मनोहारी प्रेम का शिलालेख है गीत गोविंद
किताबघर में सत्यकाम विद्यालंकार का गीत संग्रह है रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि का अनुवाद और मयूरपंख में डा. कपिला वात्स्यायन की पुस्तक गीत गोविंद में राधा-कृष्ण के मनोहारी प्रेम का शिलालेख की प्रस्तुति है। ‘गीतांजलि’ में अमर कृति होने के साथ ऐसी युग-प्रवर्तक रचना भी है
किताबघर : करुणा के सजल मेघों को नीचे झुका दो प्रभु
गीतांजलि
रवींद्रनाथ टैगोर
अनुवाद: सत्यकाम विद्यालंकार
गीत संग्रह
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2016
राजपाल एंड संज, दिल्ली
मूल्य: 125 रुपए
समीक्षा : यतीन्द्र मिश्र
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ भारतीय साहित्य में अमर कृति होने के साथ ऐसी युग-प्रवर्तक रचना भी है, जिसने आधुनिक भारतीय साहित्य को वैश्विक स्तर की मान्यता दिलवाई। मूल बांग्ला में 1910 में प्रकाशित इसका कालांतर में अंग्रेजी अनुवाद जब कुछ अन्य गीतों के संकलन के साथ 1912 में लंदन से प्रकाशित हुआ, तब उसकी भूमिका प्रमुख अंग्रेजी कवि डब्ल्यू. बी. यीट्स ने लिखी थी। ‘गीतांजलि’ का अर्थ ‘गीतों का उपहार’ है। एक ऐसे दौर में लिखा गया गीतों का संकलन, जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर अपनी संवेदनात्मक उठान में इन रहस्य भरे गीतों को परमात्मा से संवाद के रूप में प्रस्तुत करते हैं। आजादी की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर ऐसी काव्य-कृति का अवलोकन आवश्यक हो जाता है, जिसका प्रमुख स्वर भारतीय अर्थों में वैष्णव कविता और सूफी रहस्यवाद से सामंजस्य बिठाता हुआ, कहीं मनुष्य और प्रकृति के बीच आत्मीय संवाद से ओत-प्रोत है। यह भी देखना चाहिए कि पिछली एक शताब्दी के अंदर किसी भारतीय कविता का सर्वाधिक पुनर्पाठ, अनुवाद या मीमांसा हुई है, तो उसमें ‘गीतांजलि’ सर्वोपरि है। दर्जनों अनुवाद और उतने ही संपादित संस्करणों के तहत आज हमें जो ‘गीतांजलि’ प्राप्त होती है, उसमें ढेरों ऐसे स्वनामधन्य कवि, अनुवादक व विचारक सम्मिलित रहे हैं, जिन्होंने इस संकलन को अपनी दृष्टियों से परखने की कोशिश की है। इनमें महाशय काशीनाथ, पृथ्वीनाथ शास्त्री, लालधर त्रिपाठी ‘प्रवासी’, हंस कुमार तिवारी, सत्यकाम विद्यालंकार, बैजनाथ प्रसाद शुक्ल ‘भव्य’, रणजीत साहा एवं प्रयाग शुक्ल जैसे नाम शामिल हैं। ‘गीतांजलि’ एक ऐसे मुकाम पर खड़ा हुआ उदात्त भावनाओं का संगीतात्मक काव्य है, जिसमें भाषा, विचार और मानवीय भावनाओं की त्रिवेणी ने प्रेम, समर्पण और भक्ति का शिखर रचा है। सांगीतिक स्तर पर भी रवींद्रनाथ टैगोर की यह कृति इतनी लयपूर्ण और सुरीली है कि उसका विवेचन संगीत शास्त्र के मानकों के आधार पर भी किया जा सकता है।
भारतीय स्वतंत्रता के पुनर्जागरण काल में जिन भारतीय काव्य-कृतियों की महत्ता असंदिग्ध रूप से सामाजिक अर्थों में प्रतिष्ठित हुई, उनमें रवींद्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ के साथ हम मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ व ‘स्वदेश संगीत’, रामनरेश त्रिपाठी की ‘पथिक’ तथा गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ की ‘राष्ट्रीय तरंग’ का स्मरण कर सकते हैं। सत्यकाम विद्यालंकार की अनुवाद वाली ‘गीतांजलि’ की चर्चा करते हुए अनुवादक के रूप में इन गीतों की आध्यात्मिक अनुगूंजों के प्रति की गई उनकी टिप्पणी पर ध्यान देना चाहिए। वे लिखते हैं- ‘रवींद्र के गीत अन्य संसारी कवियों के गीतों की तरह हृदय की निर्बलताओं का रंगीन चित्रण नहीं है, उनमें विरह, विषाद, विक्षेपग्रस्त मन का क्रंदन नहीं है, बल्कि उनमें अलौकिक आशा, आह्लाद और आलोक की अमित आभा है। वे गीत मनुष्य की आत्मा को आवेशों की लहरों में डूबने के लिए संसार के भंवरों में नहीं छोड़ते बल्कि उसे उन लहरों से खेलते हुए पार उतरने की शक्ति देते हैं। उनमें जीवन का अमर संदेश है, जीवन की प्रेरणा है और ऐसी पूर्णता है जो हृदय के सभी अभावों को भर देती है।’ जीवन के अमर संदेश का गान करने वाली ‘गीतांजलि’ की यही सफलता भी है कि वह उदास और थके-हारे मन को जैसे खुद की प्रेरणा से उठ खड़े होने का संबल देती है। इसका एक प्रमुख गीत ‘चित्त आमार हारालो आज’ में यही संदेश है कि मेरा हृदय आज बादलों के संग उड़ गया, कौन जाने वह उड़ता-उड़ता कहां जाएगा? इसी तरह, एक अन्य गीत- ‘अंतर मम बिकशित कोरो’ का अर्थ है- हे जीवित विश्व के जीवन! मेरा अंतर विकसित करो, उज्ज्वल करो, निर्भय और उद्यत करो, निरालस और शंकारहित करो। दरअसल, कवि जीवन के समस्त जीवित और जागृत स्पंदनों में संघर्ष के कंटकाकीर्ण पथ को सहज बनाने के लिए उल्लास की अदम्य कामना करता है। ‘गीतांजलि’ के हर गीत का स्थायी भाव अंतर्मन का दायरा विकसित करने और स्वयं आनंदित होने में अर्थ पाता है। यह भारतीय सनातन परंपरा की वह शाश्वत दृष्टि भी है, जिसमें ‘अप्प दीपो भव’ की भावना के तहत हृदय में प्रकाश जलाने की बात की जाती है। इस अर्थ में भी टैगोर उस भारतीय दृष्टि के संवाहक हैं, जिनकी चेतना व्यष्टि और समष्टि के प्रश्नों से मुठभेड़ करती है।
‘गीतांजलि’ के ढेरों गीतों में उदात्त का समावेश है, जो कालातीत ढंग से जीवन लक्ष्य को साधने, विकट परिस्थितियों में सहज बने रहने, प्रेम और सौंदर्य की उपासना में मनुष्यता का पथ अपनाने तथा रिश्तों के बीच सामंजस्य बनाते हुए समन्वय का विचार आमंत्रित करने की युक्ति प्रदान करता है। ढेरों गीतों में विचार की सहज दार्शनिक वृत्ति, स्फटिक गरिमा सी चमकती है। संघर्ष और सेवा के रास्ते पर चलते हुए गीतकार प्रकृति से ऐसा विरल सान्निध्य पैदा करता है, जिसे आज आपाधापी और प्रतिस्पर्धा वाले जीवन में पुनस्र्थापित करने की आवश्यकता है। यह अकारण नहीं है कि ‘गीतांजलि’ के बहाने रवींद्रनाथ टैगोर देश-देशांतर, मन-प्रकृति, जीवन-जगत, वनस्पति, पशु-पक्षी और आत्मा व ईश्वर के आत्मीय संवाद को गहराई से लक्ष्य करते हैं। मधुरा भक्ति से संपूजित काव्य, जिसका पुनर्पाठ चित्त को एकाग्र करने और मनुष्यता की राह पर चलने के लिए प्रेरित करता है।
मयूरपंख : राधा-कृष्ण के मनोहारी प्रेम का शिलालेख
गीत गोविंद: काव्य तथा विवेचन
संपादिका: डा. कपिला वात्स्यायन
काव्य/संस्कृति/दर्शन
पहला संस्करण, 1980
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2015
भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता की ओर से लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज
मूल्य: 300 रुपए
कानपुर, यतीन्द्र मिश्र। जयदेव रचित राधा-कृष्ण के प्रणय और महारास का अमर काव्य ‘गीत-गोविंद’ ऐसी साहित्यिक घटना है, जिस पर विवेचन, मीमांसा, टीका के अलावा पारंपरिक नृत्य और गायन कलाओं में भी अनवरत नए प्रयोग होते रहे हैं। भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता में 1980 में इस ग्रंथ पर हुई संगोष्ठी के अनंतर कला विदुषी डा. कपिला वात्स्यायन ने यह पुस्तक संपादित की है। 12 प्रबुद्ध विद्वानों और कलाकारों के भाषणों का लेख-संकलन इस कृति को प्रामाणिक और कई परतों वाला बनाता है।
विद्यानिवास मिश्र ‘गीत गोविंद’ की बुनावट की चर्चा करते हैं, संगीत विद्वान सुनील कोठारी नवशास्त्रीय नृत्य शैलियों में इसके प्रभाव को परखते हैं। डा. बनमाली रथ उड़ीसा में इसकी व्याप्ति पर, डा. अय्यपा पणिकर मलयालम अभिनय-नाट्य पर अपनी बात रखते हैं। डा. कपिला ने ‘गीत-गोविंद’ का रस भरा परिचय दिया है, जो किताब की आत्मा को बौद्धिक और कलात्मक ढंग से विस्तार देता है। ऐसा अभिनव आयोजन, जो इस भक्ति और सांगीतिक काव्य को साहित्य और कलाओं के एक बड़े शिलालेख की तरह स्थापित करता है।