किताबघर और मयूरपंख में पढ़िए - 'संस्कृति के चार अध्याय' व 'भारत हमें क्या सिखा सकता है' की पुस्तक समीक्षा
लगभग 800 पृष्ठों के संस्कृति के चार अध्याय नामक ग्रंथ को चार बड़ी सांस्कृतिक क्रांतियों के संदर्भ में देखा गया है। दिनकर जी मानते हैं कि ये चार ऐसे निर्णायक सोपान हैं जिनके माध्यम से हमारी संस्कृति के इतिहास ने अपना अस्तित्व पाया है।
[यतीन्द्र मिश्र]। हिंदी के विख्यात कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘संस्कृति के चार अध्याय’ विचार और लेखन की दुनिया में एक असाधारण घटना मानी जाती है। आजादी के हीरक जयंती वर्ष में हम ऐसी कृतियों को रेखांकित करने का विनम्र प्रयास कर रहे हैं, जिन्होंने भारतीयता को पारिभाषित करने और उसके माध्यम से एक बौद्धिक विमर्श रचने का मौलिक काम किया है, दिनकर जी की यह किताब (1956 में प्रकाशित) निश्चित ही एक मूल्यवान धरोहर की तरह देखी जानी चाहिए। इस किताब को यह गौरव हासिल है कि इसकी भूमिका भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी। दिनकर अपने लेखकीय निवेदन में भारत की विविधवर्णी संस्कृति की एक एकता की बात करते हैं- ‘पुस्तक लिखते-लिखते, इस विषय में मेरी आस्था और भी बढ़ गई कि भारत की संस्कृति, आरंभ से ही सामासिक रही है। उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, देश में जहां भी जो हिंदू बसते हैं, उनकी संस्कृति एक है, एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामासिक संस्कृति की विशेषता है। तब हिंदू और मुसलमान हैं, जो देखने में अब भी दो लगते हैं, किंतु उनके बीच भी सांस्कृतिक एकता विद्यमान है, जो उनकी भिन्नता को कम करती है।’ सांस्कृतिक भिन्नता का यही मूलभूत प्रश्न लिए हुए रचनाकार ने भारत को एक राष्ट्र और सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखते हुए भारतीय संस्कृति को परखने का प्रयत्न किया है। यह पुस्तक इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि आधी सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद भी इससे संबंधित सहमतियों-असहमतियों, पक्ष और विपक्ष के ढेरों तर्क आज तक विमर्शमूलक बने हुए हैं। बावजूद इसके कि एक रोचक तथ्य रचनाकार स्थापित करता है कि वह इसे इतिहास नहीं, बल्कि साहित्य का ग्रंथ मानता है।
लगभग 800 पृष्ठों के इस ग्रंथ को चार बड़ी सांस्कृतिक क्रांतियों के संदर्भ में देखा गया है। दिनकर जी मानते हैं कि ये चार ऐसे निर्णायक सोपान हैं, जिनके माध्यम से हमारी संस्कृति के इतिहास ने अपना अस्तित्व पाया है। पहली क्रांति, वे आर्यो के भारतवर्ष में आने और उनके आर्येतर जातियों से संपर्क और नए समाज निर्माण के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि इस बुनियादी भारतीय संस्कृति के लगभग आधे उपकरण आर्यों के दिए हुए हैं और उसका दूसरा आधा आर्येतर जातियों का अंशदान है। दूसरी क्रांति, का विचार रचनाकार ने तब माना है, जब महावीर और गौतम बुद्ध ने स्थापित सनातन धर्म के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिंतन धारा को खींचकर वे अपने मनोवांछित दिशा की ओर ले गए। महावीर और गौतम बुद्ध के प्रभावों से भारत के सांस्कृतिक दृश्यपटल को वे एक बड़ी निर्मिति के रूप में देखते हैं, जिसका प्रभाव आज तक बरकरार है। तीसरी क्रांति, का कारण वे तब मानते हैं, जब इस्लाम विजेताओं के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और इस देश में हंिदूुत्व के साथ उसका संपर्क हुआ। चौथी क्रांति, उस दौर को रेखांकित करते हुए अस्तित्व पाती है, जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ। इन्हीं चार क्रांतियों के विश्लेषण, प्रभावों और इतिहास के अध्ययन का सार है यह पुस्तक। इस अर्थ में यह पुस्तक भारतीयता को सहकार, आपसी सामंजस्य और मैत्रीपूर्ण रिश्तों के बीच सांस्कृतिक आवागमन की राह पर चलता हुआ देखती है, जिसमें कई विचार मिलकर बहुवचन में हमारी राष्ट्रीयता को संभव करते हैं।
चार अध्यायों में विभक्त यह कृति भारत की ऐतिहासिक बहुलता का पाठ प्रभावी ढंग से रखती है। पहले ही अध्याय में ‘भारतीय जनता की रचना और हिंदूू संस्कृति का आविर्भाव’ के तहत कई प्रकरणों में बंटा विमर्श आर्य-द्रविड़ संबंध, वर्ण व्यवस्था और जाति-भेद, वैष्णव धर्म, रामकथा की व्यापकता, कृष्ण नाम की प्राचीनता के साथ ही ऋग्वेद के रचनाकाल तक पसरी हुई है। इसी तरह, दूसरे अध्याय में हिंदुव से विद्रोह के तहत जैन और बौद्ध मतों के सिद्धांत और उनका वैदिक धर्म पर प्रभाव आदि को तटस्थता के साथ परखने की कोशिश की गई है। इस संदर्भ में सांस्कृतिक उपनिवेशों की स्थापना, गीता आदि की चर्चा के साथ शाक्त धर्म, तंत्र साधना, योग, पुराण, शून्यवाद और कैवल्य तक को विश्लेषित किया गया है। यह कहा जा सकता है कि अपने विशद अध्ययन के तहत तथा ढेरों विद्वानों की पुस्तकों, ग्रंथों से संदर्भ चुनते हुए दिनकर जी भारतीय दृष्टि का ऐसा विस्तृत फलक रचते हैं, जिसके अवगाहन के लिए वैचारिक दृष्टि से उदार होना एक जरूरी शर्त की तरह यहां लागू है। तीसरा अध्याय, हिंदू संस्कृति और इस्लाम’ के तहत मुस्लिम आक्रमण और हिंदू समाज की व्याख्या के साथ ही हिंदू मुस्लिम संबंध की अनूठी व्यंजना को चरितार्थ करता है। यह अध्याय भक्ति आंदोलन, सिख धर्म के विश्लेषण के साथ ही कला और शिल्प पर इस्लाम के प्रभाव को रचनात्मक ढंग से रेखांकित करता है। अंतिम अध्याय अंग्रेजों के आगमन, मिशनरियों का प्रभाव, कंपनी सरकार की शिक्षा नीति के अलावा ब्राह्मण समाज और भारतीय नवजागरण काल को शानदार ढंग से व्याख्यायित करने में एकाग्र है। कुल मिलाकर एक ऐसी प्रबुद्ध सांस्कृतिक डायरी पढ़ने का सुख, जो इतिहास के गलियारे से गुजरकर साहित्य की भाषा में अपना बौद्धिक प्रभाव छोड़ती है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
संस्कृति/इतिहास
पहला संस्करण, 1956
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2016
लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज
मूल्य: 985 रुपए
भारत की बहुलतावादी संस्कृति
भारतीय धर्म, साहित्य और संस्कृति पर विद्वान मैक्स मूलर के व्याख्यानों का संकलन इंग्लैंड में वर्ष 1882 में प्रकाशित हुआ था। इन्हीं व्याख्यानों का हिंदी अनुवाद ‘भारत हमें क्या सिखा सकता है’ सुरेश मिश्र के अनुवाद में प्रकाशित हुआ है। पुस्तक में मैक्स मूलर भारत की भौगोलिक संपन्नता, सांस्कृतिक विविधता, चारित्रिक जटिलता और धार्मिकता पर अपने अध्ययन और शोध को व्यापक प्रकाशवृत्त में लाते हैं। वह आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि भारत में भाषाशास्त्रियों, इतिहासकारों और समाज विज्ञानियों के लिए इतना कुछ है, जिस पर अभी भी विस्तृत अध्ययन और विषयों के उन्मीलन की आवश्यकता है।
सात व्याख्यानों का यह संग्रह संस्कृत साहित्य की मानवीय रुचि, वेदों का धर्म, वैदिक देवता, वैदिक साहित्य, वेद और वेदांत समेत हिंदूओं के समावेशी चरित्र को इतिहास और संस्कृति के फलक पर उद्घाटित करता है। वह मानते हैं कि भारत के गौरवशाली इतिहास में साहित्य और संस्कृत भाषा की ऐसी अनेक उपलब्धियां शामिल हैं, जो गंगा के प्राचीन तटों पर स्थित इस देश को समझने में सार्वभौम दृष्टि देती हैं।
भारत हमें क्या सिखा सकता है?
मैक्स मूलर
अनुवाद: सुरेश मिश्र
संस्कृति विमर्श/व्याख्यान
पहला संस्करण, 2019
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली
मूल्य: 199 रुपए
मयूरपंख