मरने के बाद जन को समर्पित तन से सेवा, जानें-कानपुर में कौन हैं कलियुग के दधीचि
युग दधीचि देहदान अभियान के प्रमुख मनोज सेंगर ने 2003 में शुरू किया था जनजागरण वर्ष 2006 में हुआ था पहला देहदान।
कानपुर, [जागरण स्पेशल]। दान की परंपरा सदियों पुरानी है। कुछ लोग अपने और परिवार के कल्याण के लिए अन्न, वस्त्र, द्रव्य, गो और भूमिदान करते हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो मानव कल्याण के लिए पंचतत्वों से बनी काया (देह) का दान करने से नहीं हिचकते। असुरों से देवताओं की रक्षा के लिए महर्षि दधीचि ने देहदान कर इस परपंरा की शुरुआत की थी। उनकी अस्थियों (हड्डी) से निर्मित धनुष से ही दैत्यों का संहार संभव हुआ था। शहर में भी ऐसे कई दधीचि हुए हैं, जो दुनिया से अलविदा कहने के बाद अपना शरीर चिकित्सा शोध के लिए दान कर गए। प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर, स्वतंत्रता सेनानी कैप्टन लक्ष्मी सहगल और मानवती आर्य जैसी हस्तियां शामिल हैं। इनकी मृत देह मूक शिक्षक की तरह छात्र-छात्राओं को गूढ़ ज्ञान प्रदान कर रही हैं, ताकि मृत देह पर किए गए शोध नवजीवन का आधार बन सकें।
जीएसवीएम में 1991 से शुरू हुई थी देहदान के पंजीकरण की व्यवस्था
जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज में वर्ष 1991 में एनॉटमी विभाग ने देहदान के लिए पंजीकरण की व्यवस्था शुरू की थी। इच्छा शक्ति के अभाव में यह प्रयास सफल नहीं हो सका। यह वो दौर था जब मेडिकल कॉलेज में जीआरपी से मिले लावारिस शवों से काम चलाया जाता था। पुलिस मैनुअल में बदलाव के बाद इसमें परेशानी होगी लगी। इसे देख युग दधीचि देहदान अभियान के प्रमुख मनोज सेंगर ने वर्ष 2003 में जन जागरण का संकल्प लेकर लोगों को जागरूक करना शुरू किया। उनके अथक प्रयास से वर्ष 2006 में पहला देहदान हुआ। इसके बाद जागरुकता के साथ देहदानियों की संख्या भी बढ़ती रही। शहर से अब तक 226 देहदान हो चुके हैं। इसमें 197 मृत शरीर जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज को मिले हैं। यहां से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स गोरखपुर), अयोध्या एवं लखनऊ मेडिकल कॉलेजों को भी देह भेजी गई हैं।
त्वचा से हड्डी तक अध्ययन
मृत देह के हर अंग का अध्ययन किया जाता है। त्वचा, ब्रेन, दिल, गुर्दा के अलावा अन्य अंगों के बारे में पढ़ाया जाता है। केमिकल से उसे साफ कर अपर व लोअर लिंब संरक्षित करते हैं। देह की हड्डियां 15 से 20 साल तक छात्रों की पढ़ाई में काम आती हैं। मेडिकल कॉलेज की एनॉटमी विभागाध्यक्ष प्रो. सुनीति पांडेय बताती हैं कि एक मृत देह 20-25 छात्रों के ग्रुप को दी जाती है, जो ढाई से तीन माह तक शारीरिक संरचना का अध्ययन करते हैं।
आधुनिक सर्जरी सीखने में उपयोगी
कॉलेज में कैडेवर स्किल लैब बनाई गई है। यहां मृत देह पर पीजी छात्र-छात्राएं एडवांस सर्जरी करना सीखते हैं। उन्हें नसों, जोड़ों और किडनी, लिवर आदि अंगों की स्थिति का पता चलता है। वहीं लेप्रोस्कोपिक, घुटना प्रत्यारोपण एवं माइक्रो सर्जरी का अभ्यास भी कराया जाता है। सर्जरी के अभ्यास से निखार आता है और मरीज पर सर्जरी के दौरान चूक की गुंजाइश भी नहीं रहती।
ऐसे करें देहदान का संकल्प
देहदान का संकल्प लेने के लिए युग दधीचि देहदान अभियान समय-समय पर जागरुकता कार्यक्रम चलाते हैं। इसमें देहदान और नेत्रदान के लिए प्रेरित किया जाता है। एक संकल्प पत्र भरवाया जाता है। संकल्प लेने वाले की मृत्यु होने पर स्वजन को अभियान प्रमुख मनोज सेंगर को देहदान की सूचना देनी होती है। अब तक 3000 से ज्यादा लोगों ने देहदान का संकल्प लिया है। वहीं 750 नेत्र दिव्यांगों को नेत्र ज्योति मिल चुकी है।
कानपुर देहात से मिली पहली देह
शहर में पहला देहदान 2006 में हुआ था। कानपुर देहात के डेरापुर निवासी 21 वर्षीय बऊआ दीक्षित की देह को मेडिकल रिसर्च के लिए दिया गया था। उनके भाई डॉ. अभिषेक दीक्षित बताते हैं कि मेडिकल कॉलेजों को देह नहीं मिल पाती थीं। इससे छात्र-छात्राओं को पढऩे और सीखने में दिक्कत होती थी। नए डॉक्टरों का हुनर निखारने के लिए परिवार ने देहात की पहल की थी। इसी का नतीजा है कि धीरे-धीरे लोगों को जागरुकता बढ़ रही है। अब सालभर में औसतन 30 से 35 देहदान हो जाते हैं। हमारे घर में सभी ने देहदान का संकल्प लिया है।
अंतिम संस्कार की परंपरा का निर्वाह
देहदान के बाद अपने-अपने धर्म के हिसाब से अंतिम संस्कार की परंपरा का निर्वहन भी कराया जाता है। एनाटॅमी विभाग में देहदान से पहले परिजनों की इच्छा पर उनके रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार कराने के लिए धर्मगुरुओं की व्यवस्था होती है, जो मंत्रोच्चार एवं पूजा-पाठ कराते हैं। हर वर्ष मेडिकल कॉलेज में देहदानियों के स्वजनों को सम्मानित भी किया जाता है।
वर्ष देहदान
2006 01
2007 06
2008 05
2009 20
2010 15
2011 15
2012 34
2013 17
2014 18
2015 16
2016 26
2017 17
2018 12
2019 20
2020 04
(इस साल के आंकड़े सिर्फ फरवरी तक के हैं )