परशुराम जयंती विशेष : रामलीला के इतिहास में दर्ज हैं कानपुर के ये परशुराम, उत्तर भारत में बजता था डंका
उत्तर भारत में सबसे पहले कानपुर में रामलीला की शुरुआत साल 1774 में हुई।
कानपुर, [सर्वेश पांडेय]। उत्तर भारत में परशुरामी की परंपरा सदियों पुरानी है। सीता स्वयंवर में शिव धनुष तोड़े जाने के बाद लक्ष्मण और परशुराम के मध्य संवाद को जीवंत करने में कानपुर के कलाकारों ने बड़ा योगदान दिया है। परशुरामी की भव्यता, महत्व का आकलन इसी से लगा सकते हैं कि झंडागीत के रचनाकार श्यामलाल गुप्त पार्षद जी भी आयोजन से जुड़े रहे। आइए जनपद के कुछ ऐसे कलाकारों से परिचय कराते हैं, जिन्हों परशुराम के अभिनय की न केवल प्रदेश में अमिट छाप छोड़ी बल्कि उनका इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।
इतिहास के आईने में रामलीला
उत्तर भारत में सबसे पहले कानपुर में रामलीला की शुरुआत साल 1774 में हुई। तब सचेंडी के राजा अक्षय हिंदू सिंह ने जाजमऊ में गंगा तट पर धनुष यज्ञ का मंचन कराया था। इसके बाद परशुरामी यानी परशुराम के अभिनय की नींव बिधनू गांव (कानपुर) निवासी संकटा प्रसाद तिवारी ने रखी। साल 1849 में रामचरित मानस के आधार पर पहली लीला शिवली ग्राम के रामशाला मंदिर में शुरू हुई। झंडागीत के रचनाकार पद्मश्री श्यामलाल गुप्त पार्षद और स्वामी गोविंदाचार्य महाराज ने साल 1861 में तीसरी प्रसिद्ध रामलीला सरसौल पाल्हेपुर में शुरू कराई। साल 1877 में प्रयाग नारायण तिवारी ने परेड रामलीला की नींव रखी।
परशुराम अभिनय के पितामह
पितामह संकठाप्रसाद तिवारी ने 1895 से 57 साल तक परशुरामी को जीवंत किया। कानपुर देहात के गजनेर निवासी वैद्य व्यास नारायण बाजपेयी ने भी साल 1930 से 1950 तक अभिनय की अविस्मरणीय छाप छोड़ी। घाटमपुर निवासी पं. बाबूलाल अवस्थी तो तख्ततोड़ परशुरामी के लिए मशहूर थे।
17 वर्ष की आयु में शुरू कर दिया था अभिनय
परशुराम अभिनेता आचार्य गोरेलाल त्रिपाठी के ज्येष्ठ पुत्र अवधी लोक नाट्य विशेषज्ञ डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी बताते हैं कि पतारा रायपुर गांव में 27 दिसंबर 1925 को जन्मे पिता जी ने महज 17 वर्ष की आयु में परशुराम का अभिनय शुरू कर दिया था। उनकी खूबी थी कि वह पीली धोती, दाढ़ी और लंबी जटाएं धारण कर भगवान परशुराम के वास्तविक स्वरूप के दर्शन कराने वाले पहले परशुराम थे। साल 1988 तक उन्होंने समूचे उत्तर भारत में अभिनय का डंका बजाया। उनका अभिनय देखने की उत्सुकता ऐसी कि लोग केईएम हॉल फूलबाग में टिकट लेकर आते थे।
पं. शिवदत्त लाल अग्निहोत्री
रामलीला में परशुराम का अभिनय करने वाले शिवली के पं. शिवदत्त लाल अग्निहोत्री के जींवत मंचन की अब सिर्फ यादें रह गई हैं। उन्होंने परशुराम अभिनेता के तौर पर अद्वितीय ख्याति अर्जित की। 14 जून 1909 को कस्बे में जन्मे शिवदत्त के अभिनय गुरु पं. चंद्र वली त्रिपाठी ने बाल्यावस्था में परशुराम के अभिनय के गुर सिखाए। तेरह वर्ष की आयु में शिवली की प्रसिद्ध साकेत रामलीला में परशुराम का अभिनय शुरू किया। लीला के दौरान अक्सर मंच के तखत टूट जाते थे। उनकी गर्जन भरे सुर से अक्सर लक्ष्मण का अभिनय करने वाले कलाकार भयभीत हो जाते थे। कुशल अभिनय की वजह से उन्हे 'मयंक' की उपाधि दी गई थी। एक अंग्रेज अफसर ने उन्हें प्रदेश के सर्वोत्तम परशुराम कलाकार के खिताब से नवाजा था। राज्यपाल की ओर से भी उन्हें सम्मानित किया गया। 26 मई 1987 को जीवन यात्रा पूरी कर वह रामलीला मंच पर अपना खालीपन छोड़ गए।
व्यास नारायण बाजपेई
कानपुर देहात गजनेर निवासी स्व व्यास नारायण बाजपेई स्वास्थ्य विभाग में वैद्य थे 1930 से 50 के दशक तक इनका अभिनय उठान पर रहा। मंच पर उनका अभिनय देखकर जनता जय-जयकार करने लगती थी। इनकी खनखनाती आवाज लोगों में रोमांच पैदा कर देती थी। रामलीला मंडली उनसे एक माह पहले से अभिनय के लिए समय लिया करते थे। उस समय इनके सामने लक्ष्मण का किरदार निभाना चुनौती से कम नहीं था।
पंडित बाबूलाल अवस्थी
घाटमपुर निवासी पंडित बाबूलाल अवस्थी पुरोहित थे और अच्छा ज्ञान भी रखते थे। चौड़ी छाती भुजाओं वाले रूप में सज्जा के बाद अभिनय ऐसा था, जैसा मंच पर साक्षात परशुराम उतर आए हों। उनकी खासियत थी कि जिस भी रामलीला में गए, वहां तख्त तोड़ देते थे। उनका अभिनय काल 1940 से 1960 तक रहा।
कृष्णमुरारी त्रिपाठी
गहलौं निवासी कृष्णमुरारी त्रिपाठी वर्ष 1955 से 1975 तक अभिनय में संगीत का नया स्वरूप दिया। उनकी वाणी ने लोगों को बहुत प्रभावित किया। पीली धोती, लंबा कद, सुडौल शरीर उनके अभिनय का विशेष आकर्षण था। उनके बहुत से शिष्य बनकर विरासत को आगे भी ले गए।
तेज नारायण बाजपेई
कानपुर पटकापुर निवासी स्व तेज नारायण बाजपेई ने वर्ष 1950 से 1975 तक अभिनय को नया रूप दिया। गठीला बदन गौरवर्ण और अभिनय में तेजी से तेजतर्राक परसुरामों में गिनती हुई। ग्रथों और रामचरितमानस का गहन अध्ययन से उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली।
राजेंद्र प्रसाद त्रिपाठी
वर्ष 1980 से 1950 तक परशुराम के अभिनय में घाटमपुर पड़री निवासी डॉ राजेंद्र प्रसाद त्रिपाठी का कोई सानी नहीं रहा। रामलीला जगत में वहे पहले अवधी नाट्य मंच रामलीला से पीएचडी थे। इसलिए तर्क में लक्ष्मण के संवादों को परास्त करने में माहिर थे। लक्ष्मण के प्रश्नों का जवाब देते समय जनता तालियां बजाकर वाह वाह करने मजबूर हो जाती थी। लंगोट पहनकर मंचन करके खूब ख्याति बटोरी, वह मेस्टन रोड स्थित विद्यालय में अध्यापन भी करते रहे।