Move to Jagran APP

अंग्रेजों से भारत को अकेले मुक्त करा सकता था टीपू सुल्तान, मरने पर जनरल हार्ट ने लगाया था नारा-अब हिंदुस्तान हमारा..

इतिहास के पन्नों से निकले इस आलेख में स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों के योगदान का उज्ज्व अध्याय है। टीपू सुल्तान को अंग्रेज बड़ा खतरा समझते थे और मरने पर ब्रिटिश कमांडर जनरल हार्ट ने ‘अब हिंदुस्तान हमारा है’ का नारा लगाया था।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Fri, 14 Jan 2022 01:27 PM (IST)Updated: Fri, 14 Jan 2022 01:27 PM (IST)
अंग्रेजों से भारत को अकेले मुक्त करा सकता था टीपू सुल्तान, मरने पर जनरल हार्ट ने लगाया था नारा-अब हिंदुस्तान हमारा..
देश की स्वाधीनता में मुसलमानों का योगदान।

कानपुर, फीचर डेस्क। भारत सदियों से सर्वधर्म समभाव और साझी संस्कृति का प्रतीक शांतिप्रिय देश रहा है। भारत की स्वाधीनता में सभी हिंदुस्तानियों ने पूरी शक्ति के साथ संघर्ष किया है तथा अद्वितीय बलिदान देकर देशभक्ति का इतिहास रचा। इसमें मुसलमानों का योगदान हमारे इतिहास का उज्ज्वल अध्याय है। वरिष्ठ साहित्यकार फारूक अर्गली का आलेख...।

loksabha election banner

18वीं शताब्दी से ही स्वाधीनता का संघर्ष आरंभ हो गया था। 17 मई, 1799 को मैसूर के टीपू सुल्तान अपने मंत्री मीर सादिक की गद्दारी से शहीद हुए। टीपू सुल्तान का इतिहास साक्षी है कि वह निश्चित रूप से भारत को अंग्रेजों से मुक्त कर सकता था, लेकिन निजाम हैदराबाद और अपनी ही सेना में छिपे गद्दारों के कारण बहादुरी के साथ लड़ता हुआ मारा गया। टीपू सुल्तान को अंग्रेज कितना बड़ा खतरा समझते थे इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि ब्रिटिश कमांडर जनरल हार्ट ने टीपू के मरते ही नारा लगाया था ‘अब हिंदुस्तान हमारा है।’

नहीं भूल सकते बलिदान

अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर एक दुर्बल वृद्ध और साधनहीन व्यक्ति था, परंतु वह 1857 की क्रांति का प्रतीक बना। इस युद्ध में आम जनता ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अंग्रेजों ने स्वाधीनता की इस लड़ाई को ‘गदर’ का नाम दिया था। उस समय के एक अंग्रेज फील्ड मार्शल राबर्ट ने अपनी पुस्तक ‘40 ईयर्स इन इंडिया’ में लिखा, ‘27 हजार मुसलमानों को फांसी दी गई। नरसंहार में मारे जाने वालों की संख्या का अनुमान असंभव है।’ 1857 में मौलाना फजले हक खैराबादी और 500 उलेमा के बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता, जिन्होंने जामा मस्जिद से अंग्रेजों के विरुद्ध जिहाद का फतवा दिया था। उन सबकी हत्या हुई तथा कुछ की संपत्तियों को नष्ट करके काला पानी की सजा दी गई।

स्वाधीनता के लिए जारी हुआ फतवा

1857 में अवध की बेगम हजरत महल का संघर्ष और लखनऊ के हजारों मुसलमानों का कत्लेआम इतिहास में दर्ज है। दरअसल, अंग्रेज मुसलमानों को अपना वास्तविक शत्रु मानते थे। 1857 के संघर्ष को अंग्रेजों ने ‘इस्लामी विद्रोह’ का नाम दिया था। प्रत्यक्षदर्शी अंग्रेज लेखक हेनरी मेड ने इस बारे में लिखा है, ‘वर्तमान स्थिति में इसे कंपनी के सिपाहियों का बलवा नहीं कहा जा सकता। यह सारा हंगामा (मेरठ से) भारतीय सैनिकों के विद्रोह से शुरू हुआ परंतु जल्द ही यह तथ्य सामने आ गया कि यह इस्लामी विद्रोह था। सरकारी नौकरियों से मुसलमानों को निकाल बाहर किया गया है।

साथ ही उन्हें व्यापार और लाभकारी उद्योग-धंधों से भी वंचित कर दिया गया है।’ उसी समय के प्रसिद्ध लेखक विलियम हंटर ने लिखा कि- ‘कलकत्ता में अब मुश्किल से कोई मुसलमान मिलेगा जो कुली या पोस्टमैन से ऊंचे पद पर हो।’ उन दिनों गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक ने यह प्रस्ताव भी रखा था कि ताज महल को तोड़कर उसके पत्थर बेच दिए जाए। ब्रिटिश राज में मुसलमानों की दयनीय स्थिति को सुधारने के लिए सर सैयद अहमद खां ने अंग्रेजों और मुसलमानों की दुश्मनी समाप्त कराने का प्रयास किया, परंतु मुस्लिम उलेमा ने स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस का समर्थन किया। 1883 में देवबंद के मदरसे से मौलाना रशीद अहमद गंगोही और अलीगढ़ के मौलाना लुत्फुल्लाह ने भारत के मुसलमानों के नाम फतवा जारी किया कि कांग्रेस का साथ दें। इसके प्रभाव से लाखों मुसलमान स्वाधीनता की लड़ाई में कूद पड़े।

बिहार से बही आंदोलन की हवा

स्वाधीनता के इतिहास में बिहार का वहाबी आंदोलन भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह आंदोलन 1863 में आरंभ हुआ, जिसमें लाखों मुसलमानों ने हिस्सा लिया। मौलाना अहमदुल्लाह अजीमाबादी और मौलवी अब्दुर्रहीम सादिकपुरी के नेतृत्व में वहाबी आंदोलन भारतव्यापी आंदोलन बन गया था। बाद में हजारों मुसलमानों को फांसी और काला पानी की सजाएं दी गईं। बंगाल के चीफ जस्टिस जान पेकिस्टन को एक मुसलमान ने 21 सितंबर,1871 को कत्ल कर दिया था। तो वहीं 1872 में लार्ड म्यो को अंडमान में शेर अली ने मौत के घाट उतार दिया था।

एकता पर आ गई आंच

अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति 1905 में खुलकर सामने आई, जब लार्ड कर्जन ने मिस्टर फिलर को बंगाल का राज्यपाल बनाया, जिसने बंगाल को दो हिस्से में बांट देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस बंटवारे का प्रभाव दूरगामी सिद्ध हुआ और हिंदू, मुसलमानों के बीच जो एकता थी, वह कमजोर पड़ गई। इसी दौर में मुस्लिम लीग का जन्म हुआ। 1912 में अंग्रेजी साम्राज्य ने तुर्की से इस्लामी खिलाफत का अंत कर दिया, जिसके विरोध में पूरे भारत के मुसलमानों में बेचैनी फैल गई। तुर्की की खिलाफत के समर्थन में मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना अबुल कलाम आजाद और मौलाना जफर अली खां जैसे विद्वान नेता और पत्रकार आगे आए और खिलाफत आंदोलन सारे देश में फैल गया। मुसलमानों के इस आंदोलन को महात्मा गांधी ने पूरा समर्थन दिया। उनकी यह नीति हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाकर अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट करने में सहायक सिद्ध हुई।

आंदोलन में समर्थन में कीं यात्राएं

1915 में मौलाना महमूद हसन ने देवबंद से स्वाधीनता का संघर्ष आरंभ किया। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी को काबुल भेजा ताकि राजा महेंद्र प्रताप सिंह की क्रांतिकारी गदर पार्टी के साथ मिलकर तुर्की और अफगानिस्तान की सहायता से भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने का प्रयास किया जाए। मौलाना महमूद हसन ने मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली को चीन, बर्मा (म्यांमार), जापान और फ्रांस जाकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम हेतु समर्थन प्राप्त करने के लिए तैयार किया। वह स्वयं भी इसी उद्देश्य से अरब देशों की यात्रा पर गए, परंतु मक्का के अंग्रेज समर्थक शासक ने उन्हें गिरफ्तार करके अंग्रेजों के हवाले कर दिया। मौलाना और उनके साथियों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना अजीज गुल, हकीम नुसरत हसन और मौलाना वाहिद अहमद को माल्टा जेल में बंद किया गया, जहां उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। मौलाना वाहिद अहमद वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने देवबंद के मदरसे की स्थापना की थी, जो बाद में मौलना कासिम नानौतवी के नेतृत्व में भारत के देशभक्त मुसलमानों का बहुत बड़ा केंद्र बन गया।

केरल का वह ऐतिहासिक विद्रोह

स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कांग्रेस के साथ मौलाना मुहम्मद अली जौहर के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। उन्होंने ही महात्मा गांधी को ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी। डा. मुखतार अंसारी, सैफुद्दीन किचलू, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि नेताओं ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में अभूतपूर्व योगदान दिया। 1920 में मौलाना महमूद हसन, मौलना मुहम्मद अली जौहर, डा. मुखतार अंसारी और मौलाना अबुल कलाम आजाद इत्यादि ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना की, जिसका उद्देश्य देशभक्ति की भावना का विकास करना था। 1921 में केरल के मोपला मुसलमानों ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध ऐतिहासिक विद्रोह किया, जिसमें हजारों मोपला मुसलमान शहीद हुए।

नासूर बना बंटवारा

भारत छोड़ो आंदोलन हो, सविनय अविज्ञा आंदोलन हो, असहयोग आंदोलन हो अथवा रोलेट एक्ट के विरुद्ध संघर्ष हो, हर जगह पर मुसलमान नेताओं और आम मुस्लिम जनता द्वारा किए गए योगदान को वर्णित करने के लिए अनेक पुस्तकें भी कम पड़ जाएंगी। इतिहास साक्षी है कि भारतीय मुसलमानों का बड़ा वर्ग देश के बंटवारे के पक्ष में नहीं था। दारुल उलूम देवबंद के उलेमा और देशभक्त मुसलमान कांग्रेसी नेता बंटवारे के सख्त खिलाफ थे, लेकिन दुर्भाग्य से बंटवारा हुआ, जिसमें मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराते हुए भी इतिहासकार इस सच्चाई से परिचित हैं कि विभाजन में स्वयं कांग्रेस के अग्रणीय नेता भी बराबर के भागीदार थे। देश के टुकड़े होना समस्त भारतीय जनमानस के लिए कष्टदायक तो था ही परंतु भारत के देशभक्त मुसलमानों को उसका परिणाम कुछ अधिक ही भोगना पड़ा है। हमारे महान धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश का दुखद पहलू यह है कि भारत का दूसरा बहुसंख्यक समाज अर्थात मुसलमान इसके उत्तरदायी समझे जाते हैं।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.