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बलिदान दिवस विशेष : खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.., बिठूर की मनु कभी 'छबीली'-कभी 'मर्दानी'

बिठूर में नाना साहब से शास्त्रों के साथ शस्त्रों में निपुणता हासिल की और तलबारबाजी धनुष विद्या घुड़सवारी व युद्धकौशल में अमिट छाप छोड़ी।

By Edited By: Published: Thu, 18 Jun 2020 01:44 AM (IST)Updated: Thu, 18 Jun 2020 02:51 PM (IST)
बलिदान दिवस विशेष : खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.., बिठूर की मनु कभी 'छबीली'-कभी 'मर्दानी'
बलिदान दिवस विशेष : खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.., बिठूर की मनु कभी 'छबीली'-कभी 'मर्दानी'

कानपुर, प्रदीप तिवारी। बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी...। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को यादकर आज भी शिराओं में रक्त दौड़ जाता है। भुजाएं फड़क उठती हैं और स्वर ओज से भर जाता है। यह वही वीरांगना हैं, जिन्हें बिठूर में मनु के नाम से जाना गया और बिठूर के पेशवा बाजीराव द्वितीय उन्हें 'छबीली' कहा करते थे। झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ 14 वर्ष की उम्र में विवाह के बाद रानी लक्ष्मीबाई कहलाई तो 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के दांत खट्टे करने के बाद 'मर्दानी' बन गई। 1858 में आज ही के दिन महज 30 वर्ष की आयु में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई थीं। यह बिठूर का सौभाग्य है कि वीरांगना मनु ने अपने जीवन के 10 वर्ष यहीं बिताए।

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वाराणसी में हुआ जन्म, बिठूर में बीता बचपन

इतिहासकार बताते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था। वहां उनका नाम मणिकर्णिका रखा गया। मां भागीरथी बाई के जल्द गुजर जाने के बाद वह महज चार वर्ष की आयु में पिता मोरोपंत तांबे के साथ बिठूर के पेशवा महल में आ गई। यहीं नाना साहब के साथ उनकी शिक्षा दीक्षा हुई। शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्रों में निपुणता हासिल की। तलबारबाजी, धनुष विद्या, घुड़सवारी और युद्धकौशल में अमिट छाप छोड़ी। घुड़सवारी से उन्हें बेहद प्यार था। उनका सारंग नाम का एक घोड़ा भी था।

झांसी के शासक से हुआ विवाह

पेशवा महल के पास आज भी वह पुराना कुआं है, जहां वह अपने घोड़े को पानी पिलाने लाती थीं। 1842 में झांसी के मराठा शासक गंगाधर राव से विवाह के बाद 1851 में उन्होंने बेटे को जन्म दिया। महज चार माह बाद ही बेटे की मौत हो गई। इसके बाद गंगाधर राव अस्वस्थ रहने लगे और 1853 में उनकी मौत हो गई। इसके बाद से अंग्रेज झांसी हड़पने की चाल खेल रहे थे। 1857 में रानी लक्ष्मीबाई ने स्वतंत्रता संग्राम की अगुवाई की अंग्रेजों को कई बार धूल चटाई। 18 जून 1858 को अंग्रेजों से युद्ध में वह गंभीर रूप से घायल हो गई। विश्वासपात्र सिपाही उन्हें ग्वालियर में स्थित बाबा गंगादास की कुटिया में ले गए। यहीं उन्होंने अंतिम सांस ली। इतिहासकार देवेंद्र सिंह के मुताबिक मनु ने बिठूर में जो युद्ध कलाएं सीखी, उन्हें झांसी में धार दी। वहीं उन्हें इन कलाओं को आजमाने का मौका मिला था। वीएसएसडी कालेज में इतिहास विभाग के अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम ¨सह कहते हैं, अंग्रेजों के साथ युद्ध में माथे पर तलवार का घाव लगा था, एक गोली सीने में लगी थी।

सुरंग के रास्ते पहुंची थीं ग्वालियर

युद्ध के दौरान लक्ष्मीबाई झांसी से कालपी पहुंची। अंग्रेज कप्तान ह्यूरोज उनके पीछे पहुंचा। सात मई 1858 को कोंच में भीषण संघर्ष हुआ। 23 मई को अंग्रेज सेना कालपी में घुस गई। वह लक्ष्मीबाई को जिंदा पकड़ना चाहते थे। तब, वह नाना साहब, तात्या टोपे के साथ सुरंग के रास्ते ग्वालियर के लिए रवाना हो गईं। वह ग्वालियर तो पहुंच गई, लेकिन सहायता न मिलने पर लौटते समय भांडेर के पास अंग्रेजों से मुकाबले में गंभीर रूप से घायल हो गई थीं। रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय तो थी हीं, विद्रोही नेताओं में वह अकेली 'मर्द' थीं। ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज (लड़ाई की रिपोर्ट में टिप्पणी)


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