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जयंती विशेष : 'दुख की बदली' ही नहीं 'अग्निरेखा' भी महादेवी वर्मा

होली के दिन जन्मीं महादेवी वर्मा बचपन से साहित्य सृजन में जुट गईं थीं।

By AbhishekEdited By: Published: Tue, 19 Mar 2019 07:32 PM (IST)Updated: Wed, 20 Mar 2019 11:40 AM (IST)
जयंती विशेष : 'दुख की बदली' ही नहीं 'अग्निरेखा' भी महादेवी वर्मा
जयंती विशेष : 'दुख की बदली' ही नहीं 'अग्निरेखा' भी महादेवी वर्मा

ठंडे पानी से नहलातीं
ठंडा चंदन इन्हें लगातीं
इनका भोग हमें दे जातीं
फिर भी कभी नहीं बोले हैं
मां के ठाकुर जी भोले हैं...
छायावाद की दीपशिखा महादेवी वर्मा ने महज छह वर्ष की आयु में इन पंक्तियों को सृजित किया था। वर्ष 1907 की फाल्गुनी पूर्णिमा यानी होली के दिन जन्मी इस कवियित्री ने बालमन से ठाकुर जी की पीड़ा और भावुकता से भरी संवेदना प्रकट कर एक सिलसिला शुरू किया। ऐसा सिलसिला जो भविष्य में उन्हें महीयशीÓ विशेषण से सुशोभित कर गया। अपनी रचनाओं से उन्होंने न सिर्फ विरह, वेदना, कष्टों और दुखों की अनुभूति को गंभीर स्वर दिए, अपितु वह वेदना और दुखों से पार पाने की प्रेरणा भी दे गईं। उन्होंने ये संदेश दिया कि वह सिर्फ दुख की बदली' नहीं बल्कि 'अग्निरेखा' भी हैं। फर्रुखाबाद में जन्मीं महादेवी वर्मा के जीवन परिचय पर प्रकाश डालती डा. राजेश औदीच्य की रिपोर्ट...

महादेव की प्रेरणा पर रखा था महादेवी नाम
हिंदी साहित्य की आधुनिक मीराबाई महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद के गणेश प्रसाद मोहल्ले में हुआ था। पांचाल क्षेत्र में अपराकाशी कहलाने वाली इस नगरी में काशी की तरह ही गली-गली में शिवालय हैं। दो सौ वर्षों व सात पीढिय़ों के बाद परिवार में पहली बार पुत्री का जन्म होने पर बाबा बांके बिहारी ने घर की देवी मानते हुए महादेव से प्रेरित होकर नाम महादेवी रखा। मां को जाड़े के दिनों में घर में विराजमान भगवान शिव और शलिग्राम को ठंडे पानी से नहलाते देखा तो 'मां के ठाकुर जी भोले हैं...' पंक्तियों से संवेदना जाहिर की। उस वक्त शायद किसी को इस बात का भान नहीं था कि यही भावुक बालिका एक दिन हिंदी में छायावाद की दीपशिखा कहलाएगी। महीयसी के विशेषण से विभूषित की जाएगी। पद्म पुरस्कारों व ज्ञानपीठ से अलंकृत होगी, और नीर भरी बदली बनकर अपने अज्ञात प्रियतम से पूर्ण विश्वास के साथ कह सकेगी 'तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या'।भारतीय परंपरा में नारी चेतना
छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में जयशंकर प्रसाद के पास दर्शन का सार-संचय है, सुमित्रानंदन पंत के पास प्रकृति का विमुग्धकारी विस्मय है, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के पास समुद्र के गांभीर्य का परिचय है, तो महादेवी के गीत सर्वाधिक परिपूर्णता व प्रवाहात्मकता का सार लिए हैं। वह अपने प्रियतम प्रभु में भी पीड़ा को खोजना चाहती है - 'तुमको पीड़ा में ढूंढा, तुममें ढूंढूगी पीड़ा...'। उनका गद्य विचारों का अनुपम उद्यान है। आज स्त्री विमर्श का जो प्रसंग साहित्य का समकालीन संदर्भ है वह 'श्रंखला की कडिय़ां' के निबंधों और उनकेदीक्षांत व्याख्यानों में प्रमुखता से उभरा है। वह स्त्री की गरिमा व स्वतंत्रता की उद्घोषिका हैं, लेकिन उच्छृंखलता की पक्षधर नहीं। उन्होंने कहा था कि भारतीय शास्त्रों में महिलाएं पुरुष की संगिनी रहीं हैं, छाया मात्र नहीं।

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युवा पीढ़ी को संघर्ष की दीक्षा
महादेवी वर्मा युवा पीढ़ी को समर्पण की नहीं, संघर्ष की दीक्षा देती हैं। व्यथा की रात के बाद होने वाले सवेरे को वास्तविक प्रगति व खुशियों से परिपूर्ण करने को 'अंगारों पर बिछ लो' की प्रेरणा देती हैं। 1987 में देहावसान के बाद प्रकाशित 'अग्निरेखा' में वह करुणा, वेदना के बजाय महाकाली की तरह 'तरल ज्वाला से अब प्याला भरती हूं' की बात कहती हैं। कहती हैं - बिना अग्नि के जुड़ा न लोहा-माटी-सोना।
शिवमंगल सिंह सुमन ने किया था लोकार्पण
1990 में शहर के रेलवे रोड पर महादेवी की प्रतिमा का लोकार्पण प्रख्यात साहित्यकार शिवमंगल सिंह सुमन ने किया था। हर पूर्णिमा पर जयंती के दिन साहित्यिक संस्थाओं की ओर से यहां पुष्पार्चन होता है। जन्मस्थली वाला मकान बिक जाने के बाद जन्म स्थान के संरक्षण के सारे प्रयास विफल हो चुके। महाविद्यालय में शोधपीठ स्थापना की घोषणा भी धरातल पर नहीं उतरी। यह जरूर है कि उनकी जन्मस्थली में वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ युवा साहित्यकारों की नई पौध साहित्यक क्षितिज पर उनकी विरासत समृद्ध कर रही। कई नवोदित रचनाकार न केवल काव्य बल्कि महादेवी की हर विधा पर अपने लेखन से छाप छोड़ रहे।
विषैले तत्व ज्यादा, वही पियूंगी
साहित्यकार राजाराम मिश्र कमलेश बताते हैं कि महादेवी वर्मा जी का अंदाज ही अनोखा था। 1970 के दशक में वे शहर के बद्री विशाल महाविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आईं थीं। मैं भी उनके साथ मंचासीन था। जब समारोह में उनसे चाय कॉफी के बारे में पूछा गया तो वह बोलीं जिसमें ज्यादा विषैले तत्व, वही पियूंगी।
... जब खो गईं फर्रुखाबाद की यादों में
साहित्यकार ब्रजकिशोर सिंह किशोर कहते हैं कि जब मैं जनवरी 1987 में डा. शिवओम अंबर द्वारा संपादित अभिव्यंजना की पुस्तक अभिव्यक्ति-एक भेंट करने के लिए उनके घर प्रयागराज गया था। फर्रुखाबाद की बातें करते हुए वह यादों में खो गईं। इसके बाद बोलीं कि स्वस्थ्य होने के बाद सबसे पहले फर्रुखाबाद आऊंगी।


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