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Kanpur Shaernama Column: कोई बताए- आखिर ये कैसी निकृष्ट सियासत है ?

कानपुर का शहरनामा कॉलम राजनीतिक गतिविधियों को लेकर आता है। जीवन भर व्यापारी हितों के लिए जूझने वाले चाचा की छांव में कई व्यापारी नेता पनपे बड़े हुए कइयों ने सम्मानित मुकाम पाया। उनकी अंतिम यात्रा पर एक नेता रामनवमी की शुभकामनाएं भेज रहे थे।

By Shaswat GuptaEdited By: Published: Sun, 25 Apr 2021 07:30 AM (IST)Updated: Sun, 25 Apr 2021 09:27 AM (IST)
कानपुर की राजनीतिक हलचल है शहरनामा ।

कानपुर, [राजीव द्विवेदी]। शहर में राजनीतिक गतिविधियां इन दिनों पंचायत चुनाव के चलते चरम पर हैं। पंचायत चुनाव से नेता आने वाले विधानसभा चुनाव का निशाना साध रहे हैं। राजनीतिक गलियारे चर्चाओं से भर गया है, ऐसी ही राजनीतिक चर्चाओं को चुटीले अंदाज में लोगों तक पहुंचाता है शहरनामा कॉलम...। आइए देखते हैं इस बार कैसा है शहरनामा...।

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  •  समाजसेवा आइसोलेट

याद तो पूरे शहर को ही होगा कि बीते साल देश में लॉकडाउन के बाद किस तरह घर में कैद और दूसरे शहरों से अपने घर जाते लोगों की मदद को किस तरह लोग उमड़ पड़े थे। वो नजारे भी याद होंगे कि किस तरह लंच पैकेट के साथ फल और सुबह के वक्त अपनी मंजिल की ओर बढ़ते लोगों के वाहन रोक-रोककर दही जलेबी तक खिलाई गई थी। एक व्यक्ति को लंच पैकेट बढ़ाते कई-कई हाथ और कैमरे की जद में आने की समाजसेवियों की कसरत भी याद होगी। तब महामारी की दस्तक थी पर अब जब कि हर नुक्कड़ पर मातम है, अपनो को खो देने की बेबसी है तब न लोगों को तसल्ली देने के लिए न बाक्सरों से घिरे रहने वाले दिख रहे, न श्वेत वस्त्रधारी और न ही कुंडलधारी। अस्पतालों में स्ट्रेचर तलाशते, अपनों की उखड़ती सांसों को संभालने की खातिर दिन-दिन भर सिलिंडर लिए धूप में खड़े रहने वालों को पानी तक पिलाने वाला नहीं दिखता, ऐसा लगता है मानो समाजसेवा ही आइसोलेट हो गई हो।

  • हमदर्द के लिए नहीं दर्द

सियासत में संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं ये खूब सुना और देखा भी खूब पर रामनवमी पर जो अनुभव हुआ ह्रदय को गहरी टीस दे गया। जीवन भर व्यापारी हितों के लिए जूझने वाले चाचा की छांव में कई व्यापारी नेता पनपे, बड़े हुए, कइयों ने सम्मानित मुकाम पाया। देश की संसद में रहते हुए व्यापारी हितों के अपनी सरकार के आगे भी तन जाने वाले चाचा की जुबान से निकले हर शब्द को हमेशा सम्मान मिला। विडंबना देखिए जब महामारी के बीच वह अंतिम सफर को निकले तब उनकी छत्रछाया में पनपे उनके ही संगठन के एक पदाधिकारी शहर की एक विधानसभा सीट के लोगों रामनवमी की शुभकामनाएं भेज रहे थे। अंतिम यात्रा में शामिल व्यापारियों ने मोबाइल पर बधाई संदेश देखा तो एक बारगी यकीन नहीं हुआ, आसपास देखा कि शायद नेता जी वहीं होंगे पर वह नहीं दिखे। विदाकर लौटते तमाम व्यापारी खामोश तो थे पर उनकी निगाहों में एक दूसरे के लिए सवाल था कि सियासत क्या इतनी निकृष्ट हो सकती है?

  • अपनों को याद न रहा साथ

मंदिर आंदोलन के बाद सूबे में भाजपा की पैठ बढ़ी तो उसमें जीवन पर्यंत व्यापारियों के लिए लड़ते रहने वाले चाचा का भी बढ़ा योगदान था, जिस सीट पर पार्टी को उम्मीद नहीं थी उस पर भी चार बार फतह हासिल करके वहां जड़ें मजबूत की। यही नहीं व्यापारियों के बीच भी पार्टी की पकड़ मजबूत करने में उन्होंने कसर नहीं रखी। चाचा के योगदान का पार्टी के बड़े नेता सम्मान भी करते हैं। देश के प्रथम नागरिक और सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले गृहमंत्री का शोक संदेश तो पहुंचा पर शहर के उनकी पार्टी के साथियों को वक्त नहीं मिला कि संवेदना के दो बोल से परिवार को ढांढस बंधा देते। कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए भी उनको विदा करने वालों को भी भगवा दल वालों की गैर मौजूदगी बेहद खली, उनमें चर्चा भी रही कि शहर का ये संस्कार तो कभी नहीं रहा कि अपना जा रहा हो और विदा करने न पहुंचे, सियासत ही शायद अब बदल गई है।

  • आपदा में भी सियासी होड़

आंदोलनों से ताकत पाकर सत्ता से बेदखली के बाद भी वापसी करती रही पार्टी के नेताओं में आजकल आपस में ही कद और वर्चस्व को लेकर रस्साकसी कसी चल रही है। नेताजी के द्वारा भले संगठन को हमेशा तरजीह दी गई हो पर उनके हाथ से बागडोर भइया के हाथ में जाने के बाद पार्टी में सियासत के संस्कार भी शायद बदल चुके हैं। तभी पार्टी के माननीय के लिए संगठन मायने नहीं रखता। कोविड का प्रकोप बढऩे पर संक्रमितों का हमदर्द दिखने के लिए संगठन की शहर इकाई के मुखिया द्वारा राष्ट्रपति को खून से पत्र लिखने के साथ धरना दिया गया और आफत के दौर में बिजली उपभोक्ता पर मेहरबानी रखने की दरख्वास्त के साथ महकमे के मुखिया से मिले। अब माननीय को ये कहां मंजूर कि उनके रहते कोई सियासत की महफिल लूटे तो उन्होंने भी सूबे के मुखिया को पत्र लिख डाला और लगे हाथ बिजली महकमे के अफसर को भी नसीहतें फरमा डालीं।


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