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Kanpur Shaernama Column: मातम के बीच सियासी ढोंग, इन्हें नहीं दिखे अपनों के जनाजे

कानपुर शहरनामा कॉलम में इस बार कोराेना संक्रमण के समय राजनीतिक और प्रशासनिक अनदेखी की हकीकत उजागर की गई है। महामारी के बीच हर गली से जनाजे निकल रहे थे तब शहर के समाज सेवक लापता थे ।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Sun, 09 May 2021 11:49 AM (IST)Updated: Sun, 09 May 2021 11:49 AM (IST)
Kanpur Shaernama Column: मातम के बीच सियासी ढोंग, इन्हें नहीं दिखे अपनों के जनाजे
कानपुर में कोरोना संक्रमण में अनदेखी को उजागर करता शहरनामा।

कानपुर, [राजीव द्विवेदी]। कानपुर शहर में राजनीतिक और सामाजिक हलचल का आइना दिखाता है शहरनामा कॉलम। श्मशान घाटों पर भीड़ लगती रही और बड़े साहब और मातहत ने भरोसा देने में एक माह गुजार दिया। अस्पतालों के बाहर मरीजों के दम तोडऩे पर बिलखते लोगों को तसल्ली न बंधा सके अफसर अब फार्म में हैं।

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साहब की कोशिशों में नहीं रही कमी

शुक्र है कोविड के केस कम होने लगे, स्वस्थ होने वालों की तादाद बढऩे लगी। शुक्रवार बीते दिनों के मुकाबले कुछ सुकून से गुजरा, न बेड की ज्यादा मारामारी रही न ही ऑक्सीजन की, पर ये सब सरकारी बंदोबस्त या फिर प्रशासनिक प्रबंधन से संभव हुआ ऐसा भ्रम हकीकत देख चुका कोई भी शहरी कतई नहीं पालेगा। हैरानी होती है कि शहर में संक्रमितों के मिलने का आंकड़ा हजार तक पहुंचने और उसके बाद पूरा एक माह गुजरने तक बैठकें हुईं, टीमें बनी पर न इलाज को तसरते लोगों को बेड मिला न ऑक्सीजन। श्मशान घाटों पर भीड़ लगी रही और फोटो सेशन कराने में पारंगत बड़े साहब और उनके मातहत ने दावे करने और भरोसा देने में एक माह गुजार दिया। प्रशासन के दोनों आला ओहदेदारों की मेहनत देख बचपन में पढ़ी बंदर की कहानी जरूर याद आ गई जिसमें वह करता भले कुछ नहीं पर उछल-कूद में कमी नहीं रहती।

कड़े तेवरों की गजब टाइमिंग

अस्पतालों के बाहर तड़पते अपनों के लिए एक बेड की मिन्नत करते और अजीज के दम तोडऩे पर बिलखते लोगों को तसल्ली न बंधा सके अफसर अब फार्म में हैं। गुजरे सप्ताह श्मशान घाटों से भीड़ कम होने और अस्पतालों के बाहर चीखें मद्धिम पडऩे पर अब साहब को निजी अस्पतालों की सुध आई है, जहां इलाज कम मजबूरी को कैश ज्यादा किया गया।

दरअसल सीमित बेड और एक-एक सांस को तड़पने वालों की भीड़ के बीच इलाज की बोली भी ऊंची थी, उसको जिसने चुकाया उसकी जिंदगी की उम्मीद कायम रही जो नहीं चुका सका उसका श्मशान ठिकाना था। अब जबकि केस कम होने लगे, बेड खाली होने लगे तो जाहिर है बोली भी ऊंची नहीं रहने वाली ऐसे में साहब की सख्त चेतावनी जारी हुई कि इलाज के तय रेट से ज्यादा लेने वालों की खैर नहीं। है न गजब की टाइमिंग।

मातम के बीच सियासी ढोंग

महामारी ने मौत का मंजर दिखाने के साथ तमाम हमदर्दों की हकीकत को भी बेनकाब कर दिया। जब लोग दवा, ऑक्सीजन और बेड के लिए मारे-मारे फिर रहे थे, तब शहर के तमाम जनसेवक लापता थे। उस वक्त शहरियों को एक-एक मिनट का हिसाब देने वाले कथित सेवक माननीय ने गरीब की मजबूरी को देख अपने घर को उन्हें आइसोलेट होने के लिए देने का आग्रह प्रशासनिक मुखिया से किया।

पता चला तो अच्छा लगा कि कोई तो है जिसने गरीब की फिक्र की वरना बाकी तो लापता थे। हालांकि भ्रम टूटने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगा, अगले ही दिन पता चला कि एक साल पहले जब कोविड की शहर में दस्तक हुई थी तब बढ़ रहे संक्रमितों को एक खाली पड़ी अस्पताल की इमारत में आइसोलेट करने का उन्होंने विरोध किया था कि उससे पास की आबादी में संक्रमण फैलने का खतरा है। मौत के मातम के बीच इस तरह का सियासी ढोंग भी कोई कर सकता है ये जानकर हैरानी हुई।

इन्हें अपनों के जनाजे नहीं दिखते

महामारी के बीच जब हर गली से जनाजे निकल रहे थे तब शहर के जनसेवकों के लापता होने से आम शहरियों ने एक दूसरे का हाथ थामा। तमाम गुमनामी युवा लोगों को मुश्किल में देख मदद को आगे आए। उखड़ती सांसों का सहारा बने तो अंतिम सफर में जाने वालों के लिए कंधे कम पड़े तो वहां भी पहुंचे, जिनको निस्वार्थ मदद मिली तो वह भी गुमनाम देवदूतोंं के साथ हो लिए।

जीवन बचाने की जद्दोजहद में जब उम्मीदें टूट रही थीं तब जीवन भर गरीबों के मददगार रहे पिता की विरासत सम्भालने वाले माननीय निकले तो कब्रगाह का ताला खोलने। सांसों को सहारा देने की उनकी कोशिश तो किसी को नहीं दिखी पर जेल में बंद चचा के संक्रमित होने पर बेहतर इलाज के लिए खत लिखकर गुजारिश जरूर करते है। चचा के लिए उनकी फिक्र देख एक दिलजले ने तंज जरूर कसा, इनको अपनों के जनाजे नहीं दिखते।


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