Move to Jagran APP

कौन थे स्वतंत्रता संग्राम के मौन मार्गदर्शक और गांधी जी भी खुद को मानते थे उनकी छाया, पढ़िए- ये आलेख

देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्रता संग्राम में मौन मार्गदर्शक की तरह चले और महात्मा गांधी भी उन्हें अपना अक्श मानते थे। भारतीय राजव्यवस्था पर अमिट छाप छोड़ी और उनके आदर्श आज भी गणतंत्र के लिए दिशा-निर्देशक तत्व हैं।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Sun, 28 Nov 2021 09:54 AM (IST)Updated: Sun, 28 Nov 2021 09:54 AM (IST)
देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद की जन्म जयंती पर विशेष।

देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद उन स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रगण्य थे, जो गांधी जी की नीतियों, नेतृत्व और अहिंसात्मक आंदोलन में विश्वास रखते थे। गांधी जी उन्हें अपनी छवि मानते थे और वे खुद को उनकी छाया। सहज, सरल स्वभाव के धनी डा. राजेंद्र प्रसाद की जन्म जयंती (3 दिसंबर) पर युवराज देव सिंह का आलेख...

loksabha election banner

ऐसा कहा जाता है कि गांधी जी ने अपने तीन सहयोगियों को राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण कार्यभार सौंपा था- एक जवाहरलाल नेहरू, जो युवा जोश का प्रतिनिधित्व करते थे, दूसरे सरदार पटेल, जो लौह दृढ़ता वाले व्यावहारिक नेता थे और तीसरे डा. राजेंद्र प्रसाद, जो ऐसे नेता थे जिनमें उन्हें अपनी छवि दिखाई देती थी। बिहार के सिवान जिले के जीरादेई नामक स्थान पर तीन दिसंबर, 1884 को जन्मे राजेंद्र प्रसाद अपने व्यावहारिक गुणों के कारण 1934, 1939 और 1947 में तीन बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। वे संविधान की रूपरेखा बनाने वाली संविधान सभा के अध्यक्ष भी रहे। भारत के राष्ट्रपति के रूप में उनके योगदान ने भारतीय राजव्यवस्था पर अमिट छाप छोड़ी और उनके द्वारा स्थापित आदर्श आज भी गणतंत्र के लिए दिशा-निर्देशक तत्व हैं।

बंगाल विभाजन का प्रभाव

राजेंद्र प्रसाद ने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला लिया। उनकी लोकप्रियता का प्रदर्शन तब हुआ जब उन्होंने कालेज यूनियन के सचिव पद के लिए पहले वार्षिक चुनाव में एक अभिजात्य परिवार से आने वाले वरिष्ठ छात्र को हरा दिया। तब वे तीसरे वर्ष के छात्र थे और शनै: शनै: सार्वजनिक जीवन में शामिल होते जा रहे थे। यह वही समय था, जब बंगाल में बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल चल रही थी और राजेंद्र प्रसाद में भी नई जागृति आ रही थी। वहां वे सतीश चंद्र मळ्खर्जी द्वारा स्थापित डान सोसाइटी के सक्रिय सदस्य थे। बंगाल विभाजन के मुद्दे पर वे बहुत उद्वेलित हुए। स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलनों ने भी उन पर स्थायी प्रभाव छोड़ा। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी केलिए चुने गए।

राजनीतिक नेतृत्व का पोषण

राजेंद्र प्रसाद ने कोलकाता में बिहारी छात्रों को एकत्र किया। उन्होंने डान द्वारा संचालित गतिविधियों की ही तरह उनके बीच जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने शळ्रू किए। 1908 में बिहार स्टूडेंट्स कांफ्रेंस का गठन हुआ। इसने न केवल जागृति का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि व्यवहारत: बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के महत्वपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व का पोषण और निर्माण किया। उस समय के सबसे बड़े राष्ट्रवादियों में से एक गोपाल कृष्ण गोखले ने भी उन्हें पुणे में अपनी संस्था सर्वेंट्स आफ इंडिया सोसाइटी में शामिल होने का परामर्श दिया था। हालांकि राजेंद्र प्रसाद बड़े भाई महेंद्र से अनुमति न मिलने और परिवार की आर्थिक जरूरतों के कारण ऐसा कर पाने में असमर्थ रहे।

गांधी जी के समर्पित सिपाही

राजेंद्र प्रसाद की गांधी जी से पहली मुलाकात वर्ष 1915 में कोलकाता में हुई, जब गांधी जी के सम्मान में एक सभा आयोजित हुई थी। दिसंबर 1916 में लखनऊ में कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने फिर गांधी जी को देखा। यहीं पर चंपारण के किसान नेताओं राजकुमार शुक्ला और ब्रजकिशोर प्रसाद ने गांधी जी से चंपारण आने की अपील की थी। अधिवेशन में चंपारण के हालात पर भी एक संकल्प लिया गया था। वर्ष 1917 राजेंद्र प्रसाद के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था।

कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में वह गांधी जी के करीब आए, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि जांच-मिशन के लिए चंपारण जाते समय गांधी जी पहले पटना स्थित उनके घर आएंगे। वे गांधी जी के आह्वान पर स्वयंसेवकों के साथ मोतिहारी पहुंचे और जहां भी गांधी जी गए, वे उनके साथ रहे। उन्होंने उन किसानों की एक सूची तैयार की, जिनका बागान मालिकों ने शोषण किया था और स्वयंसेवकों के साथ जांच-पड़ताल की। गांधी जी को गिरफ्तार किया गया और बाद में मामले को देखने के लिए एक समिति नियुक्त करने के लिए सरकार की स्वीकृति के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। यह एक बड़ी नैतिक जीत थी और इसके बाद ही गांधी जी ‘महात्मा’ बन गए। इस प्रकार राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें ‘महात्मा’ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

समझा र्अंहसा का मर्म

भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 में रौलेट एक्ट पारित किया गया, जिसकी प्रतिक्रिया में हिंसक घटनाएं हुईं। राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम को ब्लैक एक्ट करार दिया, जबकि सरकार के अत्याचारों की पराकाष्ठा 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में निर्दोष लोगों के नरसंहार के रूप में सामने आई। इन घटनाओं ने राजेंद्र प्रसाद को झकझोर कर रख दिया था। वे बर्बर कानून की खुलेआम अवहेलना करने की शपथ लेकर इस आंदोलन में कूद पड़े।

उन्होंने 1920 में कोलकाता में आयोजित कांग्रेस के विशेष सत्र में असहयोग प्रस्ताव पारित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसी वर्ष नागपुर अधिवेशन में इस प्रस्ताव की पुष्टि हुई। उन्होंने गांधी जी के असहयोग आंदोलन के हिस्से के रूप में बिहार में असहयोग आंदोलन का आह्वान किया। इस बीच चार फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा की घटना घटी, जिसमें अब तक शांतिपूर्ण चल रहा असहयोग आंदोलन हिंसक हो गया। गांधी जी ने तुरंत आंदोलन को स्थगित कर दिया।

इस दौरान राजेंद्र प्रसाद पूरी तरह अपने गुरु गांधी जी के साथ खड़े थे, उन्होंने गांधी जी की कार्रवाई में निहित समझदारी को समझा और पूरी तरह से महसूस किया कि हिंसक साधनों से बदलाव नहीं हासिल होंगे। आंदोलन की विफलता के बाद भारत की पारंपरिक आर्थिक व्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए एक रचनात्मक कार्यक्रम शुरू किया गया था। गांधी जी की तरह, राजेंद्र प्रसाद ने भी महसूस किया कि भारतीय खादी और ग्रामोद्योग के कार्यक्रम से ही भारतीय लोग अपनी समृद्धि और आत्मनिर्भरता वापस हासिल कर सकते हैं।

अपनी संस्कृति की चिंता

उन्होंने बेलगाम कांग्रेस अधिवेशन में 23 दिसंबर, 1924 को अखिल भारतीय स्वदेशी प्रदर्शनी में उल्लेखनीय उद्घाटन भाषण देते हुए कहा, ‘यह सर्वविदित तथ्य है कि जब भी कोई देश या राष्ट्र बुरे दिनों में आता है, तो उसका क्षय जीवन के किसी एक आयाम तक ही सीमित नहीं होता है, बल्कि उसका पूरा अस्तित्व अधोगति को प्राप्त होता है और वह सब कुछ जो इसकी संस्कृति को दर्शाता है, सबमें पतन परिलक्षित होता है और यदि यह प्रक्रिया लंबे समय तक चलती है, तो वहां की अपनी संस्कृति में शामिल चीजें विस्मृत होने लगती हैं और उन देशों और राष्ट्रों की नकल से लोग काम चलाने लगते हैं जो देश वहां की संस्कृति पर अपनी संस्कृति थोपने की शक्ति रखते हैं।’

पूरक बने पटेल और प्रसाद

उन्होंने अपनी छोटी सी पुस्तक ‘कंस्ट्रक्टिव प्रोग्राम- सम सजेशंस’ में लिखा है कि केवल खादी बनाने की कला में विश्वास, जोश, कुशाग्रता और दक्षता ही गांव के संपूर्ण जीवन में क्रांति लाने के लिए आवश्यक हैं। 1925 और 1927 में बिहार में रचनात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए गांधी जी के व्यापक और श्रमसाध्य दौरों में राजेंद्र प्रसाद ने गांधी जी का साथ दिया। वे पूर्वी भारत में राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने वाले पहले प्रमुख राजनीतिक व्यक्ति थे, वह भी उस दौर में जब गांधी जी इतने प्रभावशाली नेता नहीं थे। पश्चिम भारत के एक ऐसे ही नेता जो गांधी जी से जुड़े थे- वे थे सरदार वल्लभ भाई पटेल। डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल दोनों में कई चीजें समान थीं और दोनों जल्द ही एक-दूसरे के सशक्त और स्थायी प्रशंसक बन गए। दोनों नागपुर झंडा सत्याग्रह के दौरान मिले और तुरंत ही करीबी दोस्त बन गए। राजेंद्र प्रसाद अक्सर साबरमती जाते और गांधी जी के साथ देश का दौरा करते।

परिपक्व व व्यापक सोच

बिहार को 15 जनवरी, 1934 को विनाशकारी भूकंप का सामना करना पड़ा। तब बिहार केंद्रीय राहत समिति के गठन की घोषणा की गई थी, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने 38 लाख रुपए का फंड जुटाया, जबकि इस उद्देश्य के लिए वायसराय का फंड इस राशि का केवल एक -तिहाई था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 48वां अधिवेशन बंबई में 26-28 सितंबर, 1934 को आयोजित हुआ। राजेंद्र प्रसाद ने सत्र के अध्यक्ष के रूप में नेतृत्व का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने अपना जो अध्यक्षीय भाषण दिया, जिसमें उनकी सोच की व्यापकता व विचारों की परिपक्वता परिलक्षित हुई। उन्होंने उस समय के ज्वलंत मुद्दों पर विवेकपूर्ण समझ और भारत में अंग्रेजों के छिपे हुए एजेंडे को सामने रखा।

राष्ट्रवादी संघर्ष को पहुंचाया चरम पर

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक अभूतपूर्व चुनौती का सामना करना पड़ रहा था, क्योंकि महात्मा गांधी सहित इसके अधिकांश अग्रणी नेता ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के कारण सक्रिय नहीं रह गए थे। केवल एक गतिशील नेतृत्व ही जनता के खोए हुए आत्मविश्वास को वापस ला सकता था। राजेंद्र प्रसाद ने ऐसे दौर में कांग्रेस को वह जरूरी नेतृत्व प्रदान किया, जिसने न केवल आत्मविश्वास की नई भावना का संचार किया, बल्कि राष्ट्रवादी संघर्ष को पुन: जुझारू स्तर पर पहुंचा दिया। राजेंद्र प्रसाद का कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पहला काम था गांधी-इरविन समझौते की विफलता के बाद रुग्ण राष्ट्रवादी मानसिकता में नए रक्त का संचार करना। उन्होंने कहा कि ‘यदि लोग वास्तव में स्वतंत्रता चाहते हैं तो उन्हें अटूट धैर्य और दृढ़ संकल्प और अदम्य बलिदान की भावना रखनी चाहिए।’ गांधी जी के सच्चे अनुयायी के रूप में, उनका दृढ़ विश्वास था कि स्वतंत्रता केवल सक्रिय गतिशील, अहिंसक जन-आंदोलन या सत्याग्रह की पद्धति के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है।

सभी विचारधाराओं का सम्मान

1946 को सदन में सबसे वरिष्ठ सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन किया गया। डा. राजेंद्र प्रसाद को 11 दिसंबर, 1946 को सर्वसम्मति से इसका अध्यक्ष चुना गया। इसमें कोई शक नहीं कि वह संविधान के संस्थापकों या शिल्पकारों में से एक थे। उन्होंने भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में 12 वर्ष की लंबी अवधि तक इस पद का भार संभाला और राष्ट्रपति भवन के शाही वैभव को एक सुरुचिपूर्ण भारतीय घर में बदल दिया। इसमें कोई शक नहीं कि वे मूर्ति पूजा, वर्णाश्रम और गौ-रक्षा के पक्षधर थे और पुनर्जन्म और कर्म में विश्वास करते थे, लेकिन यह एक मिथक है कि वह एक रूढ़िवादी हिंदू थे, जिन्होंने हिंदू धर्म की सामाजिक-आर्थिक संस्थाओं और प्रथाओं के सख्त अनुपालन की वकालत की। वास्तव में, उन्होंने सहिष्णुता की भावना को आत्मसात किया था और हर धर्म, हर विचारधारा के प्रति सम्मान जाहिर किया।

(लेखक पटना विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.